गुरुवार, 28 जून 2012

भूल मत जाना

"प्रिये!
विश्वास की डोर से संबंधो को बांधने का सोच रही थी, 
किन्तु देखो न! ये धागे उलझ गए हैं...
कितनी कोशिश की, जब से इसी में लगी हूँ...!
तुम थोड़ी मदद कर दो न?
तुम्हे देर नहीं होने दूंगी, बाकी के काम मैं कर दूंगी..
मुझे पूरा विश्वास है कि तुम जरुर सुलझा दोगे..."

"अरे यार! तुम भी न..
सुबह सुबह क्या काम लेकर बैठ गयी..
शाम को देखूंगा वक्त मिला तो कर दूँगा...
अभी मन नहीं है...."

"लों, अब क्या करोगे शाम को.."

"क्या हुआ?"

"गांठ लग गयी थी, एक तरफ से खिंचा तो टूट गया धागा.."

"प्रिये!
काश तुम थोडा सा वक्त निकल लेते ..तो मेरी मेहनत पर पानी न फिरता..
बाकी तो सब मैंने कर ही दिया था..तुम्हे बस हाथ ही तो लगाना था..
चलो कोई नहीं..शाम को आते वक्त एक धागों का गुच्छा लेते आना..
अभी तुम्हारी जर्सी अधूरी ही हैं.!!
भूल मत जाना, नहीं तो जब पूरी होगी तब मौसम ही निकल जाएगा इसे पहनने का,
फिर तकते रहना बैठे बैठे....."
copyright ©गुंज झाझारिया

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