रविवार, 23 सितंबर 2012

बर्फी का रस..

इस भागदौड और मशीनी जिंदगी में "अर्थ" और "दिखावे" से घिरा इंसान भूल गया उस ठन्डे अहसास को, जिसे हम प्रेम, लगाव कहते हैं...जो अंदर तक भिगो कर, मन-मस्तिष्क को शुद्ध कर, आँखों से टपकता है! जिसके होने भर से "मैं इंसान हूँ", "मैं महसूस कर सकता हूँ", "मैं जिन्दा हूँ" का अहसास होता है!
जिदगी की कड़ी धूप में ३ घंटे के भीतर "इंसान क्या है ? " का जवाब चहिये...? अगर सारी चिंताओं को भुलाकर बस ३ घंटे अगर मूक और तृप्त प्रेम को महसूस करना है! तो जाइए और जेब से 200 रुपये का कागज का टुकड़ा निकालकर "बर्फी" से मिलकर आइये...!

"बर्फी " कहानी है मर्फी की..नाम तो था मर्फी (मूक, बधिर)...पर इतना रसीला कि लोग कहने लगे "बर्फी"!
बचपन में पैदा होते ही माँ गुजर गयी! पिता का लाडला...छोटे से घर का ये बर्फी छोटे-मोटे काम कर खुशियाँ बांटता था...! काम सिर्फ पेट की भूख मिटाने भर के लिए..! फिर आई एक लड़की (पैसे वाली नारी) बर्फी की जिंदगी में...आधुनिक और कीमती प्रेम से अनभिज्ञ बर्फी बेइंतहा चाहने लगा था उसे!!! और वो बर्फी की मासूमियत और मिठास से बच नहीं पाई...दिल दे बैठी उसे...लेकिन पैसे वाली नारी की पैसे वाली माँ को अपने "स्टेटस" के आगे बर्फी की सच्चाई छोटी लगी, और उसने अपनी बेटी को "पैसे" वाले इंसान से ब्याह रचाने को राज़ी कर लिया..बर्फी जैसे ऊपर तक प्रेम के सागर में डूबे इंसान को इतना झटका लगा लेकिन फिर भी उसे दुआए दी और उसकी जिंदगी से मुस्कुराता हुआ चला गया....! बर्फी के पिता का देहांत हुआ ..! बर्फी उदास तो हुआ लेकिन एक लड़की "झिलमिल" उसकी मुस्कराहट बनी..."झिलमिल" थी तो युवा लेकिन बुधि बच्चे जितनी विकसित हुई थी...मासूम, झिलमिलाती, टिमटिमाती "झिलमिल" को बर्फी उठाकर लाया था, जब उसके पिता के इलाज के लिए पैसे की जरुरत थी, और झिलमिल के नाना झिलमिल के नाम काफी संपत्ति छो गए थे! लेकिन बर्फी को झिलमिल के खाने से लेकर, उसके सोने तक हर काम संभालना पड़ता था! शुरुवात में बोझ लगी थी उसे झिलमिल, लेकिन किसी भी राह में उसे अकेला नहीं छोड़ा उस "इंसानी देवी" ने उसे...
और इतना साथ दिया कि बर्फी उसके बिना जीना ही भूल गया!! बुढ़ापे में अंतिम साँस भी दोनों ने "आई.सी.यू. " के एक ही सिंगल बेड पर ली...
इस बीच कई तूफ़ान आये दोनों की जिंदगी में...लेकिन वो पाक, मासूम प्रेम को छू तक ना पाए!....
हर बार एक मुस्कराहट छोड़ता बर्फी, उसकी मुस्कराहट की वजह बनती झिलमिल..

ये थी आधी अधूरी कहानी ! " आधी-अधूरी " इसलिए क्युकी मैं उस अहसास को महसूस तो कर पाई...लेकिन पूरी तरह कागज पर नहीं उतार पाई...
झिलमिल का उल्टा बी सिखाना बर्फी को..और बर्फी का आँख मूंदकर झिलमिल के उलटे बी को बर्फी का सीधा बी समझ लेना, (जबकि वह जनता था कि झिलमिल कोई भी काम बिना गलती किये नहीं कर पाती)
जब बर्फी खाना खता तो उसके पास बैठना, उसे खाते देखना! आटे के गुड्डे बनाकर तवे पर सेकना, और फिर बर्फी की थाली में खाने को रख देना..

एक निश्चल प्रेम की अदभुत कहानी थी "बर्फी"..उस ३ घंटे में इंसान होने का अहसास हुआ..और ऐसा स्वप्निल अहसास था कि अभी तक रात को अपने आस-पास जुगनू दिखाई देते हैं!
अभी तक उस ग्लोब से दुनिया उलटी दिखाई देती है!

जाइये और कागज के टुकडो में से कुछ खर्च कर जिंदगी को महसूस कर के आइये...
महसूस करिये कि इस मशीनी दुनिया में क्या है सबसे कीमती , जिसे आप भूल गए हैं! ऐसा क्या है, जो आपके लिए सांसो जितना जरुरी है!
वो है "जिन्दा होने का अहसास".....



ओ..ए....ओ......ख्वाबो ही ख्वाबो में करे बातें......


शुक्रवार, 14 सितंबर 2012

किस्सा मेरा और मेरी भाषा के अपमान का..

सन्देश :
हिंदी दिवस के दिन मेरी हिंदी भाषा को शत शत नमन...
सभी हिंदी से जुड़े साथीयों, अग्रजों, अनुजों को बधाई...
सभी भाषाएँ पूजनीय होती हैं..किन्तु हमारे लिए हिंदी का स्थान उच्च ही रहेगा..
जिस भाषा में सारी संस्कृति, साहित्य, और खुद के होने का वजूद बसा हो, वो भाषा तो माँ से भी बढ़कर है...हिंदी के स्वाभिमान को चोट ना पहुँचाए..बाकी जिनती भाषाये सीखना, बोलना चाहें, जरुर बोलें...किन्तु हिंदी को, हिंदी बोलने वाले को लज्जित ना करे..


किस्सा:
मैंने स्नातकोत्तर की डिग्री प्रबंधन में प्राप्त की है...वह क्षेत्र जिसे अंग्रेजी ने इतनी बुरी तरह से जकडा है कि हिंदी बोलना महापाप है...कुछ महानुभाव ही समझ पाते हैं कि वाक् कला का मतलब सिर्फ अंग्रेजी बोलना और लिखना नहीं है...!
अब हुआ यूँ कि हमारे नए "dean" महाश्य आये..आते ही उन्होंने हमें "placements" के लिए प्रशिक्षित करने का जिम्मा खुद ले लिया..अपने केबिन में बुलाकर सारा सारा दिन वो हमसे सवाल किया करते, और जवाब तैयार करवाया करते..मुझे "finance club" की प्रतिनिधि बनाया गया...
मेरा भी बड़ा मन करता था कि मैं सभी की मदद करूँ, और हम सब से जुड़े फैसलों में मेरे भी विचार सुने जाए..इसी वजह से मैं हर रोज कुछ नया सोच कर लाती और जितना मेरी समझ में आता उससे बेहतर करने का सोचती...
एक दिन मैं सर से बात कर रही थी...तभी सर मेरी काबिलियत पर बात करने लगे...उन्हें पता था कि मैं लिखती हूँ, और कुछ-एक रचनाएँ भी पढ़ी थी..एकाएक वो मुझसे बोले..
"मैं जानता हूँ कि ये तुम्हारी कला है.पर तुम ये साक्षात्कार में मत बोलना कि मैं ये सब लिखती हूँ ,गलत प्रभाव पडेगा, एक तो तुम हिंदी में लिखती हो, दूसरा ये सब से ये प्रदर्शित होता है कि तुम ज्यादा sensitive हो..."
( ये सब उन्होंने अपनी भाषा अंग्रेजी में कहा था...)
मैं आश्चर्यचकित उन्हें देखती रही..फिर जवाब दिया...
"सर! मैं sensitive हूँ, इससे ये कहाँ दिखता है कि मैं अपना काम ठीक से नहीं करूंगी या विपरीत परिस्थितियों का सामना नहीं कर पाऊँगी...इंसान का गुण है, और इतना तो पक्का है कि मशीनी मानव से अच्छा कर लूंगी..और जिसे मशीन कि जरुरत हो, वहाँ काम करना मुझे भी पसंद नहीं..
दूसरी बात हिंदी में लिखने, बोलने वाले कई लोग है जो अच्छी कंपनी में, अच्छी पोस्ट पर काम कर रहे हैं..कुछेक के नाम भी गिना दिए.और ज्यादातर विज्ञापन मैंने हिंदी में देखे हैं..कोका-कोला, एयरटेल ही क्यों ना हो..मुझे नहीं लगता कि मुझे ना चुने जाने कि यह एक वजह हो सकती है.."
कुछ हद तक वो मेरी बात से सहमत भी हुए...लेकिन दुःख मुझे ये है कि इससे पहले वो बड़ी कंपनीज में काम कर चुके हैं, बहुत से साक्षात्कार ले चुके हैं...ना जाने कितने काबिल लोगो को उन्होंने हिंदी बोलने या लिखने की वजह से नौकरी से वंचित किया हो..और कर भी रहे हों...

गुंजन झाझारिया "गुंज" 

शनिवार, 4 अगस्त 2012

आने दो राजनीति में



मेरे देश की रामलीला समझने का प्रयत्न किया...पर समझ नहीं आई...
अन्ना जी जब शुरू में अनशन पर बैठे थे पिछले साल, तब तो सारे देश के वासी चिल्ला रहे थे “अन्ना तुम संघर्ष करो, हम तुम्हारे साथ हैं” ...फिर कुछ दिनों बाद अन्नाजी को सरकार ने धोखा तो दिया ही, जो सरकार की पुरानी आदत है..पर साथ में उन्हें आगे बढ़ने की प्रेरणा देने वाले लोगो ने भी अपना दामन छुडा लिया..इससे अन्ना जी को यह बात तो समझ आ गई थी कि हमारे भारत देश में कुछ अच्छा करना कितना मुश्किल है..एक तरफ पैसा-पैसा-पॉवर-पॉवर चिल्लाती मिडिया...एक तरफ हमारी भूखी-नंगी सरकार, एक तरफ अनपढ़-गंवार-१०वी या १२वी पास, अपराधिक प्रवर्ती के मंत्री गण, और एक तरफ हमारी बेवकूफ जनता....(माफ कीजियेगा जनता को बेवकूफ कहना स्वाभाविक था, और मेरी गिनती भी उसी में कर सकते हैं..)
अब चारों ओर से ही वार होंगे, तो बड़े से बड़े धुंरधर और सच्चे इंसान की रणनीति में थोड़ी बहुत कमी तो रह जायेगी..
अब आप चाहेंगे कि जो भी बोला है, अक्षरशः समझाया जाए आपको..
१) पैसा –पैसा-पॉवर –पॉवर करती मिडिया.. हाँ , हमारी मिडिया है जो समझती है जनता बेवकूफ है..(जो की है..) तो उसे बेवकूफ बनाओ, जितना हो सके....आपने ध्यान दिया हो ना दिया हो, पर मैंने जरुर दिया है..जब भी कोई दुर्घटना होती है..तो दुर्घटना की सही खबर पहुँचाना, वहाँ कितने हताहत हुए हैं, उनकी सही सही जानकारी देना...और दूर बैठे परिजनों को पीडितों तक पहुंचाने में मदद करना, और भी ज्यादा कुछ करना चाहते हैं तो लोगो को हिम्मत देना, एवं दुर्घटना क्यों हुई, आगे से ऐसी दुर्घटना से कैसे बचा जा सकता है ऐसे अभियान चलाना है, हमारी मिडिया का काम!
और करती क्या है? “हांजी...ताज़ा समाचार हैं कि कल हमारे मुख्य-मंत्री जी दुर्घटना स्थल का दौरा करेंगे,
वो हैलीकॉप्टर से जाएंगे या प्लेन से या पैदल..कितने बजे नाश्ता करेंगे, कितने बजे घर से निकलेंगे, कितने बजे वहाँ पहुंचेगे, कितनी देर रुकेंगे, रोयेंगे या हसेंगे, और अगर सरकार के विरोध में बोलना है तो ये देखिये, ऐसी है हमारी सरकार, देखिये कितनी दुर्घटनाये हुई, हमने मुख्यमंत्री जी को फोन किया किन्तु वो फोन पर नहीं आये...जनता को जवाब चाहिए,,,आखिर सरकार क्या कर रही है? कितनी जिंदगियों को मौत के घाट उतरना पड़ा.....बस..
२) जनता बेवकूफ इसलिए कि जो कह दिया गया उन्होंने मान लिया...हाँ यार सरकार कुछ नहीं करती, मतलब कितने लोग मर गए, सब सरकार की वजह से...बस पैसा खाती है..जैसी हवा चली, उधर बह लिए...जिसने जो कहा मान लिया..और विरोध करने में तो हमारी जनता को पी.एच.डी. है..पुतले फूंकना, नारे लगाना, रेलियां निकालना, इन सब में माहिर है...
३,४) हमारी भूखी-नंगी सरकार, एक तरफ अनपढ़-गंवार-१०वी या १२वी पास, अपराधिक प्रवर्ती के मंत्री गण..इसके बारे में तो कुछ कहने की कोई जरुरत नहीं...पिछले साल अन्ना के समर्थन के समय लोगो को एक हवा में बहते देख इन सब की बौखलाहट बता रही थी कि क्या सही है और क्या गलत...

अब मुद्दे की बात करते हैं, अन्नाजी को भी इन चारों बिमारियों से लड़ना था..वो लड़े,,क्या हुआ अगर कहीं कहीं चूके..या बहुत जगह चूके. मगर उनके इरादों में मुझे कभी गन्दी बू नहीं आई...
जब अन्नाजी की रणनीतियाँ इस धूर्त सरकार, भटकी मिडिया और बेवकूफ जनता की वजह से नहीं चल पाई...तब उन्होंने फैसला किया की उन्हें राजनीती में ही आना होगा, शायद यहीं आकर वो कुछ भला कर सकते हैं देश का..
एक बात यहाँ मैं साफ़ कर दूँ कि मैं यह लेख निष्पक्ष होकर लेख रही हूँ..ना ही मैं अन्ना के समर्थन में हूँ, ना ही विरोध में...!
एक सवाल जो उठ रहा है, वह यह..कि जब सारे घोटालों में लिप्त लोग नेता बन रहे हैं, जब सारे अपराधिक प्रवर्ती के लोग चुनाव लड़ रहे हैं...तो अन्ना जी के राजनितिक फैसले पर इतना विरोध क्यों? अगर आप यह कहते हैं कि अन्ना सिर्फ राजनीती में आना चाहते थे, यह उनका मकसद था, उनके इरादें नेक नहीं हैं.....तो जवाब है “आप ही हैं जनाब, जो सभी भूखे और लूट-पात मचाने वाले नेताओं को वोट देते हैं. ज्यादातर नेताओं के इरादे मुझे ठीक नहीं लगते, तो जिसने इतना अनशन किया, लड़ाई की..उसे भी आने दो मैदान में, एक बार उसे भी मौका दो..अगर कुछ नहीं किया तो बाकी नेताओं की तरह इन्हें भी झेल लेंगे...यदि कुछ अच्छा कर दिया तो ठीक है..
आप घबरा क्यों रहे हैं..क्या आपको वाकई लगता है हमारा लोकतंत्र इतना कमजोर है कि यदि कोई राजनीति में आना चाहता है इसका मतलब वो सिर्फ खाना चाहता है..या फिर कोई भी राजनीती में आकर सचाई की राह नहीं अपना सकता...
यदि ऐसा है तो आप खुद पर सवाल कर रहे हैं...मेरा मानना है कि देश के ढांचे को बदलने के लिए राजनीती के ढांचे को सुधारना होगा..और उसके लिए यदि कोई आगे आये, तो आने दो..हमारा ढांचा इतना बिगड चूका है कि और तो बिगड़ने की कोई गुंजाईश नहीं है...किसी को बिना मौका दिए, आप कैसे तय कर सकते हैं कि वह किस इरादे से और क्यों आना चाहता है...
और एक आखिरी सलाह, मिडिया को सुने, पर उसकी भाषा ना बोले...आप तय करे कि किसमे ज्यादा नुकसान है..मेरे हिसाब से मौका देना ही ठीक रहेगा..इआदों का पता लग जायेगा कि आखिर इतने अनशन क्यों किये? दूसरा हमें कभी यह नहीं लगेगा कि जब कोई आया था मशाल लेकर सुधरने देश, हमने उसका साथ नहीं दिया..
आने दो राजनीती में,..अगर कुछ ना भी किया तो ६० साल से झले रहे हैं ऐसे नेताओं को...५ साल और सही..
जय हिंद..

गुंजन झाझरिया "गुंज"

रविवार, 29 जुलाई 2012

पड़ोसी हमारे..या हमारे पड़ोसी..

पिछले ७-८ साल से अलग अलग शहर भी देखें..कई घर बदले, कई दोस्तों के घर देखे,,और फिर यह बात मेरे ज़हन में उठी ...आप अगर हिंदुस्तान में रहते हैं. और एक आम आदमी हैं..तो इस बात से आप भली बह्न्ति परिचित भी होंगे और मैं दावे के साथ कह सकती हूँ कि १०० में से ९५ लोग इस समस्या से हर रोज झुझते होंगे..वो समस्याये पैदा करने वाली जगह है,  घर के सामने का चबूतरा या घर की गली..नहीं नहीं समस्या जगह नहीं है, किन्तु यहाँ समस्याएं पैदा जरुर होती हैं...
किसी ने कहीं पत्थर लगा दिया,,,किसी ने कही नाली बनवा दी...किसी ने अतिक्रमण कर बड़ा सा चबूतरा बना दिया और किसी ने जबरन सड़क पर ब्रेकर बनवा दिया...वगैरह -२!
पडोसी अक्सर बहस करते पाए जाते हैं हमारे हिन्दुस्तान की गलियों में..
किसी को गली से, सबके भले से कोई वास्ता नहीं..पढ़े-लिखे, अच्छे भले समझदार पड़ोसियों को मिट्टी पत्थर के लिए लड़ते देखा है..और तो एक ही सोसाइटी के लोगो को किसी के घर के पास कचरा फेकने में भी बड़ा मजा आता है..और यह भी अक्सर बहस का मुद्दा रहता है..
एक किस्सा है...
मैं अपने पैत्रक स्थान पर आई कुछ दिन पहले, यहाँ रोड के दोनों तरफ नाली का प्रबंध है..किन्तु रोड के जिस तरफ हमारा घर है, उस तरफ आधी गली में नाली नहीं बनी, उसका कारण है कि हमारे तरफ के घरों के पीछे एक पहाड है,और पहाड के नीचे एक सुन्दर तालाब..(खूबसूरत नज़ारा है..:) ..)....  बरसात के समय में उस तालाब में जायदा पानी भरे तो घरों के लिए नुकसान है अतः सरकार ने वहाँ नाली न बना कर बड़ा नाला बनाने की सोची..अतः नाली नहीं बनाई गई..अब नाली नहीं बनी तो पानी कहाँ जायेगा? इसका हल मेरे पापा ने यह निकला कि जहाँ नाली बंद होती है वहाँ उसे सामने वाली यानी रोड के दूसरी तरफ वाली नाली में मिला दिया जाए जो पूरी ओर अच्छी तरह सिविर लाइन से जुडी है..इससे पानी सड़क पर नहीं फैलेगा..
किया तो भलाई का काम..सभी लोग जिनके घर के आगे नाली नहीं बनी, इस बात से खुश भी हुए..
भई ..सामने वाले लोग लड़ने आ गए..कि हमारी नाली में हम नहीं मिलाने देंगे..:)..बेशक पानी सड़क पर जाए..
उन्हें इस बात से फर्क नहीं पड़ता कि उन्ही की गली गन्दी हो रही है..गली की सड़क तो उनकी भी है, चाहे रोड के इस तरफ हो या उस तरफ..

इसी तरह एक दोस्त के यहाँ गयी थी ..सोसाइटी है..ओर पार्किंग में हर एक को जगह बांटी गई है, उनके फ्लैट नंबर के आधार  पर...लेकिन फिर भी जान-बूझकर लोग दूसरों की पार्किंग में खड़ी करते हैं गाडी..ओर फिर शुरू होती है बहस..

एक और किस्सा...ऊपर नीचे २ मंजिला फ्लैट हैं..अगर नीचे, ऊपर दोनों  के यहाँ गाड़ी हो तो जरुर चिंता का विषय है...ओर ऊपर वालो को अपनी गाडी पार्क करने को कोई ओर जगह ढूँढना बनता है..लेकिन जब नीचे वालो के यहाँ गाडी ही नहीं है, तो भी अगर वो ऊपर के फ्लैट वालो को गाडी पार्क न करने दें घर के आगे, तो कैसे पड़ोसी हैं.?

पड़ोसी तो वो होता है, जो मिल-जुलकर रहे, दूसरे की तरक्की में चाहे शामिल न हो, लकिन खुश जरुर हो..
पर भाईसाहब यहाँ मतलब हमारे देश में, कहते भी शर्म आती है, मेरे भारत देश में, लोग नियमों को ताक पर रखकर, पड़ोसी हैं ये भूलकर, और तो और सही ओर गलत भूलकर लडते हैं...
जब पड़ोसी के यहाँ कोई खुशी आये तो जल-भून कर राख हो जाते हैं..इर्ष्य, द्वेष तो कूट कूट कर भरा है..
ओर यही दे रहे हैं विरासत में बच्चो को..
अगर मोहल्ले में किसी दूसरे बच्चे के आपके बच्चे से ज्यादा नंबर आये, तो आप यह नहीं देखेंगे कि हमारा बच्चा कितना लायक था, अपने बूते से ज्यादा ही लाया है..आप खुश नहीं होंगे..आप दुखी होंगे...और दुखी भी इसलिए नहीं कि वो आपके बच्चे से ज्यादा लाया है..बल्कि इसलिए कि वो बच्चा यानी उनका बच्चा,यानी आपके पड़ोसी का बच्चा इतने नंबर क्यों लाया है? बस....

और यही बच्चे सीखते हैं...कि वो मुझसे आगे क्यों गया..ये नहीं देखते कि वो कितना काबिल है, उसने कितनी मेहनत करी है... नहीं..
यह इर्श्या भाव हमारी रग्-रग में बस चूका है..इसी कि वजह से तो भाई भाई को मार देता है और पड़ोसी -पड़ोसी को...
यह समस्या जितनी सरल दिखती है, उतनी है नहीं..
पड़ोसियों से झगड़ा मेरे भारत के हर आम नागरिक की दिनचर्या और टेंशन का हिस्सा है..
शायद ये लेख पढकर ही हम सोच सकें, कि ज़रा से फायदे के लिए हम इंसानियत क्यों ताक पर रख देते हैं..?
अगली बार किसी भी बहस से पहले यह जरुर सोचे कि क्या इसका कोई और हल है जिससे दोनों को संतुलित फायदा हो..और बात बन जाए..और अगर लड़ने में आपको मज़ा आने लगा है ..तो इस आदत को सुधारिये..आपकी वजह से कितने लोग मानसिक तनाव में रहते हैं, इसका अनदाज़ा नहीं है शायद आपको..
सद्भावना ओर सौहार्द से जीने में किसी का नुकसान नहीं है...यकिन मानिये आपका भी नहीं है...

copyright गुंजन झाझरिया "गुंज"




सोमवार, 23 जुलाई 2012

प्रिय समाज,


प्रिय समाज,

आप तो सकुशल ही रहते हैं...मैं आपको यह खत इसलिए लिख रही हूँ क्युकी मैं आपको जानना चाहती हूँ कि आखिर आप हैं कौन? कैसे दिखते हैं? आपके दर्शन कहाँ हो सकते हैं?
इन सब का जवाब आप मुझे अगले खत में दे देना..अभी ओर भी सवाल हैं, वैसे तो आपको समय नहीं, इतनी सब चिंताए हैं आपके पास..फिर भी इस खत को पूरा पढियेगा..
बचपन से हमारे यहाँ का हर बालक यही सुनकर बड़ा होता है.."समाज के नियम कायदे".."लोग क्या कहेंगे".."लोगो को क्या जवाब देंगे?"
हर किसी को यही चिंता..सब चिंता में कुछ ना कुछ गलत ही कर बैठते हैं..सब झूठ बोलते हैं..सब फरेबी हैं..सबके दोगले चेहरे हैं..भीतर है प्यार,ख्वाहिशें, सपने, खुलकर जीने की तमन्ना, दूसरों की मदद जर्ने की इच्छा..बंटकर खाने का मन..
और बाहर..पूछिए मत..सिर्फ रोक-टोक, मन को मारना, इछाओ को दबाना..झूठ बोलना, चोरी करना,,खूब सारा पैसा इक्कठा करके शान दिखाना..लोगो से वाहवाही लूटना..(जो मिलती नहीं.)..द्वेष भावना, तिरस्कार ...आदि आदि..

जब सब बुराइयों और कुरीतियों की जड़ है ये समाज शब्द ..जिसे शुरुआत में मनुष्य को एक सामाजिक, मिलनसार और पूर्ण रूप से इंसान बनाने के लिए पैदा किया गया था..उस शब्द के सहारे ना जाने कितनी कुरीतियाँ और बुराइया पनपती रही..हर कोई भुगतता रहा, हर कोई तिल तिल मरता रहा..सभी को इंसान चाहिए था..पर कौन करे इंसान? कौन परिभाषित करे इस "समाज" को? अरे नहीं! मैं आपको जिम्मेदार नहीं कह रही हूँ....आप सोये रहते हो और आपका नाम लेकर लोग लूट पात करते हैं...जैसे पहले जागीरदारो के समय होता था...
कौन कहे कि "यह हमारा समाज है..हम इसे मैला नहीं होने देंगे..कुरीतियों से हमारे समाज को गन्दा करने का किसी को कोई हक नहीं..."
जब ये सवाल उभरे मन में तो विचलित मन को कोई जवाब ना सूझा..बात ये हैं, कि यह निर्बोध मन इतना ही नहीं जनता कि समाज कौन है? किसके पास जाऊ कहने कि लोग आपका नाम लेकर बहती गंगा में हाथ धो रहे हैं..और इतने धो चुके हैं कि गंगा भी मैली हो गई और आपका  नाम भी..तभी फैसला लिया आपको यह खत लिखने का ...
जिस नारी कि पूजा होती थी मेरे देश में..जिस नारी के एक क्रोध भरी नजरो से भस्म हो जाते थे राक्षश, सूख जाती थी नदियाँ...उस नारी का यह हाल?
और फिर किस मुह से कहते हो  कि तुम परम्पराओ का पालन कर रहे हो, इसलिए पाबन्दी लगा रहे हो...किसी की जिंदगी के फैसले लेने का हक तुम्हें किसने दिया? क्युकी तुम बलवान हो या क्युकी तुम ऐसा करके सभी लोगो का आदर पाना चाहते हो?
नारी को धिक्कारा..चलो ठीक है..नारी तो धरती है...समा ली तुम्हारी सारी बुराइयां अपने भीतर...(इस कार्य में कुछ स्त्रियां भी शामिल हो सकती हैं, अतः यह नारी पुरुष की लड़ाई पर आधारित नहीं है यह बात)...
तो अब बात बच्चो की...
किसने हक दिया तुम्हें उस कच्ची उम्र में उनका बचपन छीनकर उनका ब्याह रचाने का..?
अगर देखभाल करना  इतना भारी लग रहा था तो क्यों पैदा किया..? अपने आनंद के लिए तुने उसे पैदा किया और अब तू उसे अपना गुलाम बनाकर उससे नौकर की तरह हर बात मनवाना चाहता है..? तू तो अभिभावक बनने के लायक भी नहीं था...(उन सभी माता -पिताओ के लिए जो अपनी सोच जबरदस्ती थोपते हैं और ये दुहाई देते हैं की हमने तुम्हें पैदा किया)
चलो बालकों की छोडो,..
जीवन का आधार, इंसानियत का सबसे कीमती गुण "प्रेम"
तुमने तो इस पर भी रोक लगा दी...तुम्हारा ये दोगलापन मुझे समझ नहीं आता ...स्त्री का पति मर गया तो उसकी शादी बिना मर्जी जाने उसके देवर से करवा दो, और यदि शादीशुदा होते हुए उसे किसी और से प्रेम हो गया या वो अपने पति के साथ नहीं रहना चाहती , दूसरा विवाह करना चाहती है..तो उसका सर मुंडवा कर उसे निर्वस्त्र कर दो कि समाज के खिलाफ है.. इसे मैं क्या समझू?
किसी भी नियम , कायदे-कानून के पीछे कोई व्याख्या नहीं...बस अपने हिसब से तोडा..जो जितना बलवान था , उसकी बात मानी, और बन गए समाज के नियम..
तुम किसी मंदिर में जाकर किसी भगवान कि पूजा के लायक नहीं हो..तुम्हारी इस जिद की वजह से रोज इंसानियत शर्मसार होती है...भगवान शिव सती के विवाहिता थे, किन्तु दूसरा विवाह किया पार्वती से, क्यों ?
क्युकी उन्हें पारवती से प्रेम था.सती अपने पिता की इच्छा के विरुद्ध शिव की विवाहित बनी...क्यों? क्युकी उन्हें भगवान शिव से प्रेम था...तुम्हारे नियम के अनुसार भगवान शिव और माता सती भी गलत थे?
यदि नहीं तो इस दोगलेपन का जवाब चाहिए मुझे..
मैं एक जीता जागता इंसान हूँ, मुझे भी पूरा हक है अपनी समझ के हिसाब से फैसले लेने का..
सभी इंसानी रिश्तों से परे तुम तो राक्षश बन चुके हो..
इस कलयुग में भगवान के अवतार लेने की उम्मीद नहीं है....और इंसान को ये नेता और कानून कुछ करने नहीं देगा..वोट तो ये समाज ही दिलवाता है ना..
फिर भी मैं अपनी जिंदगी अपने हिसाब से जीने के लिए प्रतिबद्ध हूँ..और आपका किसी तरह का कोई दबाव मुझे स्वीकर्य नहीं होगा...

इसी समाज में रहने वाला प्राणी..

गुरुवार, 5 जुलाई 2012

बेटी नहीं बेटा है तू




मेरी  बेटी  नहीं बेटा है तू",  "मुझे मेरे माँ- पापा ने बेटे की तरह पाला है!"ऐसे ही शब्द मुझे आजकल रोज सुनने को मिलते हैं, और सोचने पर मजबूर हो  जाती हूँ कि 

क्या बेटियां बेटी बन कर नहीं रह सकती? क्यों उन्हें या तो कैदी बनाया जाये या बेटा बनाया जाये? मैं अक्सर पढ़ती हूं, कि हमारे यहाँ औरतो की  बहुत क़द्र होती थी!

बिना घूँघट के रहती थी,पूजा जाता था  उन्हें स्वयंवर रचाने तक का भी हक था!
विदुषियाँ होती थी, अपने आप में सम्पूर्ण..तभी तो ऐसी तेज युक्त संतान पैदा करती थी..और स्रष्टि व समाज सब साफ़ रहता था...मैं अपवाद की बात नहीं कर रही हूँ यहाँ..


फिर एक वक़्त आया,जब उन्हें घूँघट में कैदी बना दिया गया!नौकर की तरह रखा जाने लगा! सारे हक छीन लिए गए...न पढाना, न खुद का वर चुनने की आजादी, और न ही अपनी कोख में पली संतान के विषय में कोई भी फैसला लेने का हक..पुरुषों में सब कुछ अपने ही हाथ में ले लिया..ऐसे में पुरुषों ने कौन से परचम लहरा दिए? पूरी सामाजिक व्यवस्था ही गड़बड़ा गयी...

और अब तो प्रकृति को ही ललकार दिया, बेटी को बेटा बना दिया .और अजीब बात तो ये है, कि बहुत ख़ुशी होती है बेटियों को जब पापा कहते है, "बेटा है मेरा ये" मुझे तो ये शब्द बिलकुल पसंद नहीं है , बेटी हूँ, बेटी ही कहिये..मेरा अपना वजूद है, प्रकृति ने दोनों को अलग बनाया है! मैं बेटा नहीं बनाना चाहती! मैं खुश हूँ कि मैं आपकी बेटी हूँ, और बेटी बनकर ही नाम रोशन करुगी.


क्यों हमारा समाज बेटी को बेटी बनाकर नहीं रख सकता और बेटे को बेटा?.या यूँ कह लो कि क्यों पुरुष, पुरुषत्व नहीं दिखलाता, और नारी नारीत्व..? क्या वाकई में,बेटियों को बराबर खड़ा करने के लिए बेटे शब्द का सहारा लेना जरुरी है..? क्यों कहते हैं, कि आजकल तो लड़कियां लड़कों से आगे हैं? आगे जाकर करना क्या है? क्यों आगे जाने की होड लगी है दोनों में? दोनों एक ही गाडी के दो पहिये हैं,लड़की लड़की बनकर रहे

और लड़का लड़का ही रहे! तो फिर क्या उन्नति नहीं हो सकती?


जब तक बेटी में बेटी नहीं होगी,या एक पत्नी में पत्नी नहीं होगी?तो कैसे ये गाड़ी चल पाएगी? मुझे डर ये है कि कही येदोनों अपना अलग संसार ही ना बसा ले! उत्तरी छोर पुरुषों का, दक्षिणी महिलाओं का..या फिर इसका उल्टा भी हो सकता..उत्तरी महिलाओं का, दक्षिणी पुरुषों का..और वैसे भी विज्ञानं ने इतनी तरक्की तो कर ही ली है कि वंश को आगे बढ़ाने में कोई दिक्कत नहीं होगी..है न? आप हंसिये मत, दोनों की प्रतिस्पर्धा अगर ऐसी ही रही तो यही होने वाला है!


ये कहते हैं,कि लड़की लड़का हैं! ठीक है,  फिर क्यों उस लड़के को बस में सीट की जरुरत होती है? बाकी लडको की तरह खड़े नहीं हो सकती ?तब कैसे आप झट से कह दोगे, महिला है बेटा, सीट दे दे!अधिकार की बात हो तो हम बेटियां हैं,और वैसे हम बेटों से आगे हैं! यहाँ मैं ये बिलकुल नहीं कह रही कि नारी बराबर नहीं है..लेकिन ये आगे, पीछे, बराबर की लड़ाई मेरी समझ से परे है...
और ये महिला मोर्चा वालों से तो मैं यही कहूँगी, ये तो वही बात हो गई कि माँ लाठी लेकर कहे कि मैं माँ हूँ, मेरी पूजा कर...बस में सीट दिलाने की बजाय नारी को खड़ा होना सिखाइये,, उससे कहिये कि समाज में अपना स्थान न छोड़े..पूजा करवानी है तो देवी बने,,किन्तु सशक्त ताकि पीछे कई बरसो से जो शोषण हो रहा है, उसके बारे में पुरुष सोचे भी न..और कम से कम अपनी संतान को ( बेटा या बेटी) उसके प्राकृतिक गुणों से परिचित तो करवा ही दें,,,सिखाना तो आपकी मर्जी है..
दोनों का एक दूसरे के मन में सम्मान होना जरुरी है...दोनों अपना अपना काम करें,,,और ये होड आगे निकलने की, उसे छोड दे..इससे कुछ हासिल नहीं होगा...बस स्थिति और बिगड जायेगी...

आपके विचार सदर आमंत्रित हैं...:))


copyright गुंज झाझारिया

शुक्रवार, 29 जून 2012

मेरी पूजा का कोई फल नहीं मिलता

जब सामने वाले मंदिर में आरती करने पंडित उठते हैं..
मैं उनसे पहले ही उठ खड़ी होती हूँ..
वो पूजा की तैयारी करते हैं,
और मैं इनके दफ्तर जाने की....
जब उनकी आरती की घंटी बजती है..
मैं इन्हें उठा रही होती हूँ..
वो प्रसाद बांटते हैं..
मैं नाश्ता करवा रही होती हूँ...
जब पंडित मंदिर की सफाई में जुटते हैं.
मैं घर आंगन की सफाई में जुटी होती हूँ..
जब वो १२ बजे मंदिर के पट बंद करते हैं..
मैं तब भोजन कर थोडा लेट पाती हूँ..
फिर पंडित जैसे ही ३ बजे की घंटी बजाते हैं,
मेरे बच्चे स्कूल से आ जाते हैं...
जब पंडित कुंडलियाँ देखते हैं...
मैं बालको का सेवा पानी करती हूँ,,
मेरा भविष्य तो वही है न..
फिर शाम की आरती होने लगती है,
और ये दफ्तर से आ जाते हैं..
फिर होड लगती है
मुझमे और मंदिर के पंडित में
किसकी भक्ति में ज्यादा शक्ति .
हर रोज न जाने कौन सी चूक हो जाती है
जो मेरे मंदिर के स्वामी क्रोधित हो जाते हैं..
रात का नजारा थोडा अलग होता है...
मंदिर के पंडित जब चैन से १० बजे सो जाते हैं..
मैं उनके हाथो से मार खा रही होती हूँ..
कितने पढ़े लिखे और ज्ञानी होते हैं ये पंडित..
इनकी पूजा से कभी स्वामी को क्रोध नहीं आता,
बस सुकून की बौछार होती है..
मैं अबोध हूँ..अज्ञानी हूँ..
जो मेरी पूजा का कोई फल ही नहीं मिलता...
Copyright ©गुंज झाझारिया

गुरुवार, 28 जून 2012

भूल मत जाना

"प्रिये!
विश्वास की डोर से संबंधो को बांधने का सोच रही थी, 
किन्तु देखो न! ये धागे उलझ गए हैं...
कितनी कोशिश की, जब से इसी में लगी हूँ...!
तुम थोड़ी मदद कर दो न?
तुम्हे देर नहीं होने दूंगी, बाकी के काम मैं कर दूंगी..
मुझे पूरा विश्वास है कि तुम जरुर सुलझा दोगे..."

"अरे यार! तुम भी न..
सुबह सुबह क्या काम लेकर बैठ गयी..
शाम को देखूंगा वक्त मिला तो कर दूँगा...
अभी मन नहीं है...."

"लों, अब क्या करोगे शाम को.."

"क्या हुआ?"

"गांठ लग गयी थी, एक तरफ से खिंचा तो टूट गया धागा.."

"प्रिये!
काश तुम थोडा सा वक्त निकल लेते ..तो मेरी मेहनत पर पानी न फिरता..
बाकी तो सब मैंने कर ही दिया था..तुम्हे बस हाथ ही तो लगाना था..
चलो कोई नहीं..शाम को आते वक्त एक धागों का गुच्छा लेते आना..
अभी तुम्हारी जर्सी अधूरी ही हैं.!!
भूल मत जाना, नहीं तो जब पूरी होगी तब मौसम ही निकल जाएगा इसे पहनने का,
फिर तकते रहना बैठे बैठे....."
copyright ©गुंज झाझारिया