गुरुवार, 15 दिसंबर 2011

सजती रात में जंचता चाँद---भाग 2

सजकर आते देख,
क्यों तूने सजना छोड़ दिया...
प्रसंशा करता तू भी,
इसके शीघ्र सज कर आने की...
किन्तु कैसे भूल गया वो शब्द?
कैसे नाकारा निरंतर गूंजते साज को?
जो कहता रहा--
सजना है तुझे,
सजना है तुझे,
सुन्दर ----अतिसुन्दर---सर्वसुन्दर!

अरे भैया!
पहले सज नहीं पाए तो दुखी हो गए!
यहाँ प्रतिस्पर्धा तो सबसे सुन्दर सजने की थी!
सबसे पहले सजने की नहीं!
जब कूदे थे इस सजने की दौड़ में 
तब क्यों ना सजने का पूरा नियम पढ़ा!
गलती हुई है,
अब सजा भुगत रहे हो!

लेकिन अब याद दिला दूँ मैं...
सजने की प्रतिस्पर्धा अब भी चल रही है,
और लोगो का सजना जारी है!
सजने के सामान की कमी नहीं है तेरे पास अब भी!
और अब भी  उद्देश्य वही है!
सजना है तुझे,
सजना है तुझे!
सुन्दर--अतिसुन्दर---सर्वसुन्दर!
यहाँ सबसे पहले सजने की कोई होड़ नहीं है!

गूंज झाझारिया --

बुधवार, 14 दिसंबर 2011

सजती रात में जचता चाँद

सजाने चले थे,
सजने के बहाने !
सजना ना आया !!
सजाना कैसे आता?

ना सज पाए,
ना सजा पाए!
इसी बीच कोई और सजकर निकला यूँ,
जैसे
सजती रात में जंचता चंद्रमा हो!
उसको सजकर आता देखा तो,
जिसको सजाने चले थे ,
उसकी उलाहना ही मिल गई!

अरे भैया!!
कह दिया होता--
खुद सजने आये थे तुम्हे सजाने के बहाने!
तुम्हे सजाना तो कभी मकसद नहीं था मेरा!
जितना दुःख तुम्हे है,
उससे ज्यादा दर्द यहाँ हैं!

जो खुद का ना सजा पाया ,
उससे बड़ा बदसूरत कौन होगा!
ये पंक्तिया लिखी और जीवन का एक अद्भुत सत्य सामने आया...
आज पहली बार अपनी कलम की प्रसंशा करने का मन  हुआ!
मेरे कुछ हिंदी में कमजोर दोस्त शायद यहाँ लिखी पंक्तियों में छिपा रहस्य नहीं समझ पाए!
सोचा क्यों ना उनके लिए थोड़ी व्याख्या कर दी जाए सरल हिंदी में!
वैसे भी स्कूल में मुझे हिंदी और संस्कृत की अध्यापिका से व्याख्या के मामले में काफी प्रसंशा मिलती थी! :P
हाँ तो एक बालक जब पैदा होता है, तो भगवान् उसे तन-मन-बुधि देता है...
और कहता है की "लो, सजने के लिए सारी सामग्री दे दी है! इसका उपयोग करो और सुन्दर ----अतिसुन्दर----सर्वसुन्दर बन कर दिखलाओ!"
लेकिन उसके पैदा होने के साथ ही ना जाने कितने सगे-सबंधियो, मित्रो, भाई-बहनों को लगता है कि ये हमें सजाने आया है!
हमारा मान बढ़ने आया है!
चलो कोई नहीं बहाना उन्हें सजाने का रहता है, लेकिन इसकी आड़ में में वह स्वयं को ही सजाने का प्रयत्न करता है!

{अच्छा जी ---अब आप कहोगे जब व्याख्या ही कर रही हो तो ये सजना या सजाना है, इसका अर्थ तो बतलाओ!
ये तो आप ही जानो कि आप क्या सजाना चाहते हो, और क्यों?
हर एक के लिए इस सजने की अलग परिभाषा है!}

अब देखिये---अगर हम ना सज पाए, उससे पहले कोई और सज कर निकल गया तो---सभी रिश्तेदार, माँ-पापा, भाई-बहन कहेगे-अरे तुमने ये नहीं किया? हमारा मान गिरा दिया! तुम इतना नहीं कर पाए? और उलाहना देंगे ! तो 
जवाब देना---अरे भैया!!
कह दिया होता--
खुद सजने आये थे तुम्हे सजाने के बहाने!
तुम्हे सजाना तो कभी मकसद नहीं था मेरा!
जितना दुःख तुम्हे है,
उससे ज्यादा दर्द यहाँ हैं!

आखिर में दो पंक्तियाँ--

शायद इन्हें समझाने की जरुरत नहीं पड़ेगी---
जो खुद का ना सजा पाया ,
उससे बड़ा बदसूरत कौन होगा!?
उम्मीद ही नहीं विश्वास है कि अप सब को समझ आया होगा!

इसी लेख के ख़त्म होने के साथ सारे बादल भी उड़ गए!
अब आसमान साफ़ नजर आ रहा है!

धन्यवाद!

गूंज झाझारिया





गुरुवार, 8 दिसंबर 2011

मर्जी काम की

आप सभी को नमस्कार!

अक्सर देखा और महसूस किया है कि, जिंदगी को हम जैसी दिशा दे देते हैं!
वैसी ही राह पकड़ लेती है!
कभी कभी तो ये अपने हाथ की कठपुतली लगती है, अगले ही पल में लगता है कि इसका रिमोट ऊपर वाले के हाथ में हैं!
लेकिन ऊपर वाले के हाथ में कैसे? ये हज़म नहीं होता!
हाँ, आपके आस-पास रहने वाले लोगो का प्रभाव होता है!
अभी पल्लवी जी का भी एक इसी से मिलता जुलता लेख आया था-जिसमे उन्होंने उल्लेख किया था "कुछ तो लोग कहेंगे"!
तो अक्सर उनके कहने और करने का प्रभाव हमारे जीवन पर अवश्य पड़ता है!

अभी आप सोच रहे होंगे कि आखिर मैं बात किस विषय पर कर रही हूँ? जिंदगी की दिशा या दुसरो का प्रभाव...

जी नहीं, मैं तो अपने ही कर्मो की बात कर रही हूँ....मैं बात कर रही हूँ एक ऐसे अवगुण की, जो हर दुसरे इंसान में होता है! एक किस्सा सुनती हूँ!
अभी-२ २ महीने पहले नए घर में रहने आई हूँ! यहाँ हमारे ऊपर के फ्लैट में एक आंटी रहती हैं!
 दिल की साफ़ हैं और मुझसे काफी अच्छे से बात भी करती हैं!
लेकिन अक्सर वो मुझसे शिकायते करती रहती हैं, कभी अपने पतिदेव की , कभी सासु माँ की,
कभी ननद की या फिर पड़ोसन की!उनके पास सिर्फ यही बात होती है! मैं अपनी तरफ से कोशिश कर चुकी कई बार उन्हें समझाने की कि ऐसी बाते कर के वो अपने अन्दर इतनी नकारात्मक उर्जा भर चुकी हैं कि यदि कोई कुछ अच्छा करता भी है तो उन्हें दिखाई नहीं देता! उस समय तो वो समझ जाती हैं! लेकिन अब लगता है ये उनकी आदत हो गई है!

उन्हें अक्सर जो समस्या रहती है वही है--हर दुसरे आदमी की समस्या !
जी हाँ मैं उसी की बात कर रही हूँ...
वो ये है कि पहले तो वो दुसरो का काम कर देती हैं, बिना कहे सहायता कर देती हैं, या यूँ कहो जबरदस्ती कर देती है ! और फिर जब सामने वाला उनका कोई काम न करे तो उनका दिल दुखता है---
"मैंने तो उसका इतना किया, उसने मेरे लिए क्या किया?" 
अरे भाई! ये क्या बात है?
तुमसे हुआ तो तुमने किया! अगर ये सोच के किया था कि चलो अब इसे मेरा काम करना ही पड़ेगा तो उससे गलत तो आप हो!
और अगर ऐसा सोचा नहीं था तो फिर अपने किये कराये को बोल बोल कर क्यों बर्बाद करते हो?

मुझे लगता है कि इससे तो अच्छा है--न किसी का करो, न किसी से करवाओ!
लेकिन ऐसे लोगो का क्या , जिनसे न करवाने पर भी कर देते हैं! और उसे अहसान समझकर हावी हो जाते हैं!
सामने वाला कुछ न कर पाए तो उसे बुरा-भला कह दो!

मानती हूँ कि हम समाज में रहते हैं और एक-दुसरे की मदद करनी चाहिए!! किन्तु ये तो सबकी मर्जी है कि वो कोई काम करना चाहे या न करना चाहे---कोई कैसे उससे जबरदस्ती करवा सकता है? और फिर आप ये कहो कि--"कर देता तो उसका क्या जाता?"
ये गलत है!

यह विषय बहुत छोटा है, किन्तु अक्सर मैंने लोगो को घर में, चाहे वो पति-पत्नी हों या सास-बहु, माँ-बच्चे, सबको इस काम के विषय पर लड़ते देखा है!
"ये काम तुम्हारा किया , तो क्या तुम इतना नहीं कर सकते?"

प्यार से ऐसी बाते हो तो आनंद आता है, लेकिन इस विषय पर लड़ाई का कोई ओचित्य ही नहीं है!
क्युकी हम सब बुद्धिजीवी हैं, और अपने दिमाग से सोचकर ही सब करते हैं! और अगर दिल नहीं किया तो नहीं करते हैं! फिर उस बात को कोई थोप नहीं सकता!

आपके विचारो का स्वागत!

गूंज झाझारिया!








मंगलवार, 6 दिसंबर 2011

छवि सुधारने की जंग

अभी कल एक फेसबुक दोस्त ने कहा की आपको इस तरह मॉडल की फोटो अपने प्रोफाइल पर नहीं लगानी चाहिए, गलत छवि बनती  है...!
अब बैठकर सोच रही हूँ कि ऐसा आखिर क्यों होता है?
"मैं अच्छा लिखती हूँ,
मेरी सोच साफ़-सुथरी है!
मैं अपने अलावा देश की मौजूदा समस्याओ पर भी सोचती हूँ..
और एक युवा नागरिक होने के कर्तव्यो का पालन भी करती हूँ...!"

इन सब बातो को साबित करने लिए जरुरी है कि  मैं सिर्फ ऐसी चीजों का इस्तेमाल करूँ, जो मेरी पुरानी पीढ़ी करती थी.?
क्या मेरी सोच दिखाने के लिए मुझे खादी पहनना,या साडी पहनना जरुरी है?

लेकिन मेरे विचारो का क्या?
मैं तो उन मोडल्स का , अदाकारों का , सभी फिल्म निर्माताओ का भी आदर करती हूँ,
उनकी प्रशंसा करती हूँ...
बहुत कुछ सीखा  है मैंने उनसे भी!

ये वही लोग हैं, जो समाज के हर रूप-रंग को आपके सामने रखते हैं!
गन्दगी ये लोग नहीं फैलाते!
ये तो आइना हैं, हमारा!
बस हम लोग वो आइना देख नहीं पाते और आग-बबूला हो जाते हैं कि गंदे दृश्य दिखाकर ये लोग हमारे समाज को गन्दा कर रहे हैं! किसी फिल्म के आने पर जिसमे कुछ ख़राब दृश्य हैं, (आपके हिस्साब से, मुझे लगता है, वो मानवीय जीवन का हिस्सा हैं, और उन्हें छुपाना एक अदाकार के अदाकारी का अपमान है! उसके लिए जरुरी है कि वो अपने किरदार को जिवंत कर सके) शिव-सेना, और हिन्दू-समाज , और न जाने कितने समाज मारने-पीटने पर तुल जाते हैं,
हमारे देश कि सचाई है ये, इससे क्या घबराना?
जब बलात्कार का प्रतिशत रजिस्टर्स , और फाइल्स में बढ़ता रहता है,
जब सड़क किनारे यूँ नग्न शरीर देखने को मिलते हैं,
तब क्यों नहीं कोई समाज आता है, दोषियों को दंड देने?

जब दोषियों को तारीखे बढाकर, मामला ठंडा होने पर रिहा किये जाने पर कोई नहीं बोलता...?
लेकिन जब वही सच्चाई निर्माता दिखाए तो वो गलत है?

मेरा तो कहना है की अगर सच्चाई से जीना सीखना है ,
तो सभी राजनेताओं को, सभी पुलिस वालो को,
और सभी मीडिया वालो को , सीखना चाहिए उनसे!

जहा तक कपड़ो की बात है,
क्यों फैशन गलत है?

मैं जिन्दा हूँ,
मेरे अन्दर इंसान होने के सारे गुण हैं,(अवगुण भी)
मुझे रंग अच्छे लगते हैं,
मुझे भी अच्छा दिखना है!

इन सब बातों का मेरी छवि से क्या मतलब?

एक और उदाहरन दूंगी---आप, मैं या कोई भी हमारे बीच में ऐसा है? जो ये कह सके कि
मैं जो हूँ, मैं वो हूँ! मुझे कोई पछतावा नहीं आजतक मैंने जो भी किया उसका.
और फिर अपनी जीवन कि हर एक सच्चाई पुरे देश के सामने टीवी पर कह सकते हो?

ये किया है---पोर्न-स्टार ----सनी ने बिग बॉस पर!

वो उसका पेशा था,
लेकिन असली जिंदगी में उससे बहुत कुछ सीखा मैंने!
इतनी साफ़-सुथरी सोच, इतने मेहनती और इतनी ईमानदार !

आखिर में मेरा यही कहना है कि
अपने लिए ईमानदार बनो पहले!
सबसे ज्यादा जरुरी है!

[हो सकता है भावनाओं में बहकर शायद कुछ-एक बात मैंने गलत कह दी हों,
और आप -सब उससे सहमत न हो,,
उसके लिए क्षमा ...आपके विचारो कि सख्त जरुरत है सही राह के लिए]

धन्यवाद..

गूंज झाझारिया




सोमवार, 28 नवंबर 2011

आलस्य :मेरा दोस्त

आज सुबह मैंने पूछा आलस्य से,

" भाई, तुम क्यूँ मुझे इतना सताते हो?
हर समय बिन बुलाये मेहमान के जैसे आस-पास
मंडराते हो!
मुझे नहीं पसंद है यूँ तुम्हारा आना,
तुम्हारे आने से ही तो मेरे काम अधूरे रह जाते हैं!
मेरे नाम न कमाने की,
धन न पाने की एक-मात्र वजह तुम ही हो!"

आलस्य पहले तो खूब हँसा!
उसे हँसता देखकर 
तो मानो मेरा खून खौल रहा था!

आलस्य हँसा और बोला-
" लड़की, तुम कितनी सयानी हो!
मेरी तो प्रकृति है, हर समय सभी के
आस-पास रहने की, मौका तलाशने की !
ताकि
मनुष्य को आराम के पल दे संकू!
क्युकी लालच में तो मनुष्य भूल ही जाता है,
कि उसे थोडा सा विश्राम करना है!
पैसे की भूख और नाम कमाने की चाह
में वो अपने तन को भूल ही जाता है!
इसलिए मैं तो तुम्हारे भले के लिए आस-पास रहता हूँ!
मुझे क्यों इतना बुरा-भला कह रही हो?

अच्छा ये बताओ,
जो लोग इतना धन कमाते हैं,
रात -दिन कर्म करते हैं,
मैं क्या उनके आस-पास नहीं मंडराता?"

आलस्य के इस सवाल ने मुझे थोडा सोच में डाल दिया!
क्या कहूँ?
और वाकई में उनके आस-पास आलस्य रहता है या नहीं ?
मैं इससे अनजान सी होकर बोली--
" तुम उन लोगो के पास तब जाओगे न,
जब तुम्हे मुझसे फुरसत मिलेगी!
रात-दिन तो यही पैर पसारे रहते हो!"

आलस्य को थोडा क्रोध तो आया,
किन्तु उसे सँभालते हुए बोला--

"देखो लड़की,
मेरी प्रकृति के अनुसार मैं हर एक मनुष्य,
यहाँ तक की हर एक जानवर के आस-पास भी रहता हूँ!
लेकिन तुम इंसान हो ही ऐसे
जिन्हें हर एक चीज़ का लालच हो जाता है!
धन आने लगेगा तो उसका लालच और
सो जाओगे तो आराम का लालच!
इसमें भला मेरा क्या दोष?
जो इंसान मुझसे दोस्ती करके ,
मेरा साथ देते हैं,
और मुझे समझाते हैं कि
बाकी के काम भी जरुरी हैं!
वो लोग खूब धन कमाते हैं,
खूब कर्म करते हैं!
तुम्हारी गलती है कि
तुम मुझे आवश्यकता से ज्यादा चाहती हो!

| अति सर्वत्र वर्ज्यते|

मैं तो अपना काम करता हूँ!
किन्तु तुम क्यों मुझसे इतना प्रेम करती हो?
तुम क्यों मेरे आने पर मेरी और आकर्षित होती हो?


इतना बड़ा सत्य सुनकर
मेरी आँखों से आंसू आ गए!
मैंने कहा--
" तो फिर तुम ही बताओ,
मैं तुम्हारे आने पर अपना काम करती रहूंगी,
तो क्या तुम्हारा अपमान नहीं होगा?
मुझसे आये अतिथि का अपमान नहीं किया जाता!"


मुझे रोता देखकर
आलस्य को थोडा अपने क्रोध पर मलाल हुआ!

और बोला--
" देखो तुम रोना बंद करो,
मैं तुम्हे एक बात बताता हूँ,
मैं -आलस्य कोई मेहमान नहीं हूँ..
मैं तो तुम्हारा एक ऐसा दोस्त हूँ,
जो हर समय तुम्हारे साथ रहता हूँ..
अतः तुम्हे किसी प्रकार का संकोच करने की
आवश्यकता नहीं है!
जब भी तुम काम में लगी रहोगी,
मुझे कहना इंतज़ार करने को,
मैं इंतज़ार करूँगा,
जितना तुम कहोगी,
किन्तु जो समय है न,
वो तुम्हारा दोस्त नहीं है, जिसे तुम अपना दोस्त कहती हो!
वो तुम्हारा इंतज़ार कभी नहीं करेगा!"

बड़ा ही आश्चर्य हुआ इतना बड़ा सत्य जानकर!
मैंने कहा...
"आलस्य तुम सही कह रहे थे
कि मैं तुमसे प्रेम करती हूँ..
और अब ये सब सुनकर तो और करने लगी हूँ..
सही कहा कौन ऐसा सच्चा दोस्त होगा,
जो जितना कहोगे-इंतज़ार करेगा!
तुम वादा करो कि तुम हमेशा मेरे काम खत्म होने तक इंतज़ार करोगे!"

आलस्य ने मुझे गले लगाया और कहा--
"अब जाओ नहीं तो बातो में तुम्हारा काम फिर अधुरा रह जाएगा!
बची हुई बात तो हम आराम के समय में ही कर लेंगे!"

:)
और मैं काम करने चली गई!


Gunj Jhajharia



सोमवार, 21 नवंबर 2011

सामाजिक प्राणी

अजीब दुनिया है...
आप सब लोग समझते होगे कि इतने लेख लिखती हूँ, तो मुझे सब दुनियादारी समझ ही आती होगी!
पर इस दुनिया को और यह के लोगो को समझना इतना आसान कहा है?
छोटी सोच और तुच्छ विचारो को हमारे समाज से ये शिक्षा भी दूर नहीं कर पायी है!
अगर इन सब संकरे विचारो के दायरे से बहार निकल जाते तो आज ये हालत न होती हमारे समाज की.
और जो कोई इन सब से ऊपर उठाना चाहता है, उसे न ही बल्कि रोका जाता है, खीच कर अपने स्तर तक लाने में 

कोई कसार नहीं छोड़ी जाती!

अगर गलत को गलत नहीं कहा जाए तो क्या कहा जाए?
मुझे तो ये समझ नहीं आता कि लोग लड़ाई को बढाकर उसे राइ का पहाड़ क्यों बनाते हैं?
क्यों उसे बैठकर, समझ कर सुलझा नहीं सकते?
किसी महापुरुष ने ठीक ही कहा है कि क्रोध बूढी को भ्रष्ट कर देता है!

चिलाना, चीखना या फिर जब मन आये कुछ भी कह जाना, सामने वाले के सम्मान और प्रतिष्ठा की बिना कुछ चिंता किये! और फिर अगली बार उसी इंसान से आचे व्यवहार की उम्मीद करना! क्या यह सही है?
क्या किसी की गलती का यही हल है?
क्या हम उसे आसान, सीधे शब्दों में उसकी गलती बता कर उसे अत्म्गलानी के लिए नहीं छोड़ सकते?
कि उससे वह भूल फिर से न हो!
क्या वास्तव में गुस्सा होने से हमारी समस्या का हल निकल जाएगा ?

हाँ, ये भी बात है कि कुछ लोग होते हैं, जिन्हें शांत करने के लिए आपको कड़ी भाषा अपनानी पड़ती है, किन्तु वह बचाव होता है! अगर वह लोग पहले ही समझ जाए कि बस अब मैं अपनी बात कह चूका, हावी होने से कोई हल नहीं निकलेगा, तो फिर हमें वह कड़े शब्द बोलने ही न पड़ेंगे!


आप सब सोच रहे होंगे कि आज अचनक मैं  यह समाज की छोटी सोच और क्रोध की बात क्यों कर कर रही हु?
तो इसका जवाब ये है कि, कल ही मैं अपने पैत्रक शहर आई हूँ, अपने परिवार के सदस्यों से मिलने!
यहाँ आकार हेमशा अहसास होता है कि चाहे कितनी भी विद्या हमारे गावो में पहुच गई हो, कित्नु वो सिर्फ रतन विद्या ही है, जिसका वास्तव में कोई अर्थ नहीं निकलाकर आता!
अभी भी लोग उठाना, बैठना, और किसी से कैसे व्यवहार करना है? नहीं सीखे हैं!
अभी भी किसी की कही एक बात को पकड़ कर सर फोड़ने की नौबत आ जाती है, ये जाने बिना कि क्या वास्तव में सामने वाला यही कहना चाहता था?
आज भी जब कोई अच्छी बात बताई जाए, इसे लोग "शहरी  चोचले" कहते हैं!

यहाँ आई तो ऐसे ही कुछ समझाए बिना रहा न गया!
भाई को कुछ बोला तो बिना मतलब जाने चिल्लाना शुरू हो गया कि " तुझसे बड़ा हूँ, ज्ञान न दे!" ज्यादा जानता हूँ! और फिर उस बात को इतना बढ़ा दिया कि मेरे पास समझाने और बोलने को कुछ न रहा!
और जब मैं चुप रही तो बाकी सब को लगा कि मेरी ही गलती है !
और सब मुझ पर बरस पड़े कि बड़ो से बात करने कि तमीज नहीं है!

तो ये था हादसा !
छोटी सोच और सकरे विचार इसलिए कहा
क्युकी , आज भी उन्हें लगता है कि अगर मैं बड़ा हूँ, तो मुझे सब आता है, मैं परम ज्ञानी हूँ!
अरे ! ये भी भला कोई जवाब हुआ?
क्या अपने से छोटी उम्र के लोगो से नहीं सिखा जा सकता? इससे बद्दापन कम नहीं होता!
क्या अगर आपकी कंपनी का C.E.O. आपसे छोटा है तो आप उसे ये कहोगे कि इसे क्या पता ? मैं इससे बड़ा हूँ, ज्यादा दुनिया देखी है!
आज भी वो लोग समाज के कहे चलते हैं!
यहाँ मैं ये नहीं कहती कि समाज के हिसाब से चलना गलत है!
मनुष्य सामाजिक प्राणी है और समाज में रहना और उनके हिसाब से चलना ही चाहिए!


किन्तु अगर कुछ गलत है तो उसे सही कहने कि हिम्मत भी होनी चाइये!
ये कौनसी बात हुए कि समाज के खातिर अपनी यह अपने परिवार के लोगो की ख़ुशी भूल जाए और घुट-२ कर जिए?
अरे यह समाज हमारा है और हमसे बना है! कोई पत्थर की लकीर नहीं जो मिट नहीं सकती !

मेरी यह कोशिश तो उन्हें समझाने की नाकामयाब रही और उल्टा मुझ पर ही आरोप आये कि,
मुझे बड़ो का आदर करना नहीं आता और शहर के लोगो जैसे गुण आ गए हैं, जिन्हें समाज और अपनों से कोई लेना-देना नहीं होता!

लेकिन फिर भी हमेशा कोशिश करती रहूगी, कि अपनी बात उनके सामने रख कर समझा सकू!

आप सब के विचार आमंत्रित हैं!

धन्यवाद आपके बहुमूल्य समय के लिए!

गुंजन झाझारिया




शनिवार, 19 नवंबर 2011

बिग बॉस की सीख


हमारे सामने कोई भी परिस्थिति आये, वो इतनी बड़ी  नहीं होती की हम उसका सामना न कर सके!
हाँ अपनों के जाने का दुख होता है< और होना भी चाहिए, यही एक इंसान की पहचान है, कि वो अपने पराये में फर्क जानता है!

किसी कारणवश अगर कोई अपना आपसे दूर चला जाए तो उसमे उसकी या अपनी गलतिय ढूँढना , बस उसके आने कि आस देखना गलत है!
ये तो बस परिस्थितियों का खेल है, जो हर समय एक जैसी नहीं होती!

आजकल टेलीविजन पर आ रहे बिग बॉस को सब देखते तो हैं, लेकिन मुझे उसे देखकर जो भी समझ आया है वो आपके साथ बाटना चाहती हूँ!

ये बिलकुल हमारे संसार की तरह है, बाहरी दुनिया से अलग...जैसे हमारा संसार!
दोस्त हैं, दुश्मन है.....पर सच में कोई नहीं ,,,और सब हैं!
यहा खेल खेले जाते हैं, छोटा घर हैं, कम लोग हैं,हमारी नजर है,  इसलिए सब साफ़ पता लगता हैं!
पर वही खेल असली जिंदगी में भी खेले जाते हैं!
न हमारी नजर होती है, और न पता लग पाता है, जब तक परिणाम न आये उस खेल का!
आपके हसने, खाने , बोलने, चलने पर हर समय लोगो की नजर रहती है!
वही असल जिंदगी में भी होता है!
प्यार सब करते हैं,,,,पर जहा नोमिनेशन कि बात आये कोई अपना नहीं,
वैसे ही जहा पर असल जिंदगी में खुद की खुशियों का , और आराम का ख्याल आये...कोई अपना नहीं!

मैं तो सही में दात देती हु, ऐसे निर्माताओ की...
अगर चाहो तो इतना कुछ सीख सकते हो,,,
एक कृत्रिम दुनिया बना कर दी है, और बिग बॉस मानो हमारे समाज  के नियम-कायदे, और महापुरुषों की खिची हुए दीवारे हो...
 बिग बॉस के नियम  को मानने और कैमरे के बाहर बसी दुनिया के सामने अच्छा दिखने के लिए वो लोग रोज रूप धरते हैं! तो असल जिंदगी में भी उन्ही नियम-कायदों को अपने हिसाब से मरोड़ने और दुनिया के सामने अच्छा बनने के चक्कर में इंसान नए नए रूप धरता है!

अगर ये बिग बॉस के नियम कायदे न हो, अगर वहां नोमिनेशन का खतरा न हो,
तो निकल कर आएगा सबका असली रूप...मेरे हिसाब से..तब ये रोज होने वाली खिट-२ भी बहुत कम  होगी और अगर होगी तो तुरंत समाधान भी निकल आएगा...

हाँ ,तो अब तक आप मेरी बात समझ ही गए होंगे...
की अगर ये समाज के नियम कायदों की बेडिया न हो, दुनिया के सामने अच्छा बनने का ढोंग न हो...
तो फिर कैसा होगा इंसान...?
तब असली मनुष्य सामने आएगा...तब देखना प्रेम और विश्वास के फूल कैसे खिलेंगे...और तब दुसरो की मदद और उन्नति चाहने से  अपने ही आप में एक सम्पूर्ण समाज बन जाएगा..!

किन्तु ये तो मेरी कल्पना है...ऐसा तो हो ही नहीं सकता कि मनुष्य अपने आप कि बुधि का इस्तेमाल कर अपने ऊपर बिछाये इस जाल से निकल सके....

तो फिर बिग बॉस से और क्या सिखा जाए?
मेरे हिसाब से हम हर एक वाकये को जिंदगी में असल रूप दे कर अगर मेरे साथ होता तो मैं क्या करता?
ये सोचे तो भी आगे आने वाली कई परिस्थितियों से लड़ने की पहले से तयारी हो जाएगी!!


इन दिनों बहुत कुछ सिखा बिग बॉस से,
सोचा आपके साथ बाट लू...
आशा है आपको पसंद आया होगा!

आपके विचारो  का स्वागत है !

गुंजन झाझारिया

शुक्रवार, 18 नवंबर 2011

शांति एवं प्रेम की तराजू

कभी कभी सही या गलत  की आंधी में इंसान इतना फस जाता है, कि सही और गलत का चुनाव तो दूर कि बात है, वह भीतर से भी घटने लगता है..इस द्वंद्व में उसके अन्दर कि बुद्धिमता का कोई हिस्सा जैसे झड़ने सा लगता है..
क्या यही इस प्रकृति का एक खेल है, इश्वर के सबसे लाडले एवं बुद्धिमान  मनुष्य को अपने जाल में उलझाए रखने का?
क्युकी अगर सत्य और असत्य का असली अर्थ समझ आ गया और सही और गलत में फर्क करना जान गया तो फिर तो मनुष्य गलतियाँ ही नहीं करेगा..और जब गलतिया नहीं होंगी तो फिर सब आपस में प्रेम से और सद्भावना से ही रहेगे.! फिर ये दुख-सुख का चक्र भी झुठला जाएगा!
और शायद इसी वजह से कई महापुरुषों ने सत्य कि खोज में अपना जीवन दे दिया...किन्तु एक ही बात सबने बताई कि शारीर नाशवान है और आत्मा अमर..इसलिए शारीर पर ध्यान न दो!

अब ये बात भी मुझे तो कुछ हजम नहीं हुई ...अगर शारीर पर ध्यान ही न देना था तो फिर आपके परमात्मा ने इतनी मेहनत से यह बनाया क्यों? और आप ही कहते हो कि ऊपर वाला जो करता है, सोच समझ कर करता है,
तो फिर यह क्यों उनकी बने किसी भी चीज़ पर हम ध्यान न दे?

जब महापुरुषों कि इस बात कि उदेद्बुन कि तो यही कुछ समझ आया, कि किसी कि बात को सुनना, समझना चाहिए किन्तु आँख बंद कर के भरोसा नहीं करना चाहिए! अगर मेरे विचार और मेरा ज्ञान मुझे यह कहना चाहते है कि यह शारीर नाशवान तो है, कित्नु जब तक इसका नाश न हो तब तक इसका सही इस्तेमाल करना हमारा फर्ज है, तो मैं वही सुनुगी और करुगी!

अपने आप को सजाने, सवारने में कैसी बुराई? क्यों इश्वर के समीप जाने के लिए भगवा वस्त्र ही पहनो, जबकि भगवान् तो खुद वैभव के स्वामी हैं और सज-संवर कर रहना पसंद करते हैं?
मुझे तो कभी भी समझ नहीं आया, इसके पीछे का तथ्य!


इस संसार में आये हो, और इतना बल और बुधि से परिपूर्ण जो शारीर मिला है, उसका पूरा इस्तेमाल जरना चाहिए! अपने विचारो का मंथन करके जानो कि आपको क्या सही लगता है और क्या गलत ? उसके पीछे के तथ्य को समझो और फिर अपने फैसले लो!


हालाँकि रोजमर्रा कि जिंदगी में कई बार हम सही-गलत, अपने-पराये के बीच इतना फस जाते हैं, कि लगता है कुछ अब हमारे हाथ में नहीं है, ऊपर वाला ही खेल खेल रहा है!
उस समय वही बात बार-२ सोचकर अपने आपको खोने से अच्छा है कि आप यह सोचो मेरे आस-पास इतने मस्तिष्क हैं और सब के विचार और कार्य एकजुट हो तो फल आएगा..न कि मेरे अकेले के सोचने से!
और यह जरुरी नहीं कि बाकी सब के मस्तिष्क बिलकुल वही विचारे!
उस समय जब आपको लगे कि आपके विचार सबसे अलग हैं किन्तु सही हैं, फिर भी आपके हिसाब से काम नहीं हो रहा है!

तो आपको सब कुछ समय पर छोड़ देना चाहिए! इस समय में  आप अपने आपको अनुकूल और प्रतिकूल जो भी हो आने वाली परिस्थिति के लिए तैयार करे किन्तु चिंता और घबराहट से परे होकर!
इसका तर्क यह नहीं है कि  समय में कोई बल है...या प्रभु कोई चमत्कार करेंगे..
बल्कि तर्क ये है कि बाकी बुद्धिजीवी क्या करेंगे और क्या चाहते हैं, आपको समझ आ जाएगा!
और ऐसा ही बिलकुल उनके साथ होगा..और फिर आप और वही सब मिलकर अपने विचारो में थोडा बहुत फेर बदल करेगे और सब स्वतः ही संभल जाएगा!

सही और गलत के बिच कोई दिवार नहीं है....कोई नहीं जानता कि बिलकुल सही या बिलकुल गलत क्या है?
बस जो भी तथ्य हो उससे आपके मन एवं मस्तिस्क को संतुष्टि का अहसास हो....और आपके इर्द-गिर्द सौहार्द एवं शांति का वातावरण बने ....वही सत्य है !
इसलिए अपने कार्यो को सही गलत कि परिभाषा में तौलना छोड़कर हमें उसे शांति और अशांति, या प्रेम सद्भावना के शब्दों में तौलना चाहिए!
इसी में हम सब कि भलाई भी है और उन्नति भी!
इसलिए आज से और अभी से ये वहम छोड़ दे कि मैं सही हू तो मैं क्यों मानु बात?
या फिर मैं सही हू तो मैं क्यों झुकू ?

याद रखे...
इक दिन बिक जाएगा माटी के बोल,
जग में रह जायेगे प्यारे तेरे बोल!!

माती के बोल बिकने का तो कुछ पता नहीं किन्तु हाँ आपके बोल अवश्य रह जाएगे...अगर आपके बात मानने से शांति और सौहार्द बना रहे तो क्या सही है वो इतना जरुरी नहीं!

आपके विचार आमंत्रित हैं...
अगर आप मेरे विचारो से सहमत नहीं तो भी आपका पक्ष जरुर रखे!

सधन्यवाद!



गुंजन झाझारिया...


बुधवार, 9 नवंबर 2011

जीविका की लड़ाई

करत-करत अभ्यास के जड़मत होत सुजान,
रस्सी आवत जात है, सिल पर पडत निशान!!!

ये दोहा हमेशा से ही प्रेरनादायी रहा है! जब भी कोई काम मुश्किल लगे, बस इसे दोहरा लो..और बस मनो किसी ने मरते शारीर में जान डाल दी हो!
अभी थोड़े ही दिन पहले हमारे ही देश के एक युवा "सुशिल कुमार" ने "कौन बनेगा करोरपति" का ख़िताब जीता! और ५ करोड़ के अधिकारी बने!
बेहद ख़ुशी हुए, छोटे-छोटे गाँवो में भी इतनी प्रतिभा भरी है!यहाँ बात सिर्फ जानकारी होने की नहीं है! उस जगह पर बैठकर, हर एक फैसले की है!
उस हर एक निर्णय चाहे वो, जवाब देने का हो, या फिर किसी तरह की कोई सहायता लेनेका..सहायता लूँ की नहीं? कौनसी लू? कब लू?
ये सब एक-एक बात को गिना जाता है! इतनी समझदारी से आपको अपने  बुद्धिमान होने का प्रमाण देना होता है!
बधाई हो सभी भारतीयों को इस विजय की! अब इस गर्व से कह सकते हैं की भारत के गाँव भी समझदार है!
जरुरत है तो सिर्फ साधनों की!

नए आंकड़ो के हिसाब से हमारी साक्षरता दर है: पुरुषो के लिए---82.14%,महिलाओं के लिए---- 65.46%
लेकिन अगर बात रोजगार की करे, तो हमारे मंत्रालय के आंकड़ो के हिसाब से---
Sixty per cent of India's workforce is self-employed, many of whom remain very poor. Nearly 30 per cent are casual workers (i.e. they work only when they are able to get jobs and remain unpaid for the rest of the days). Only about 10 per cent are regular employees, of which two-fifths are employed by the public sector.
http://www.indiaonestop.com/unemployment.htm

मतलब २.५ की दर से निचले दर्जे पर काम करने वाले लोगो की संख्या बढ़ रही है! अब सरकार का दावा है की साल में १०० दिन रोजगार की गारंटी ..यानि नरेगा!
तो बाकी के २६५ दिन घर पे बैठो!
बात भी सही है, इतने सारे रोजगार सरकार लाये कहा से? लेकिन समस्या को जड़ से जानने की जरुरत है!
मैंने देखा है की गावो में जो साधन है, उतने तो युवा काम में लेते हैं! जैसे एक ग्रेजुएट की डिग्री, ये बी.एड. की डिग्री!
फिर भी रोजगार नहीं? विदेशो में तो बचे १६-१७ साल की उम्र में कमाने लगते हैं!
कारण है की ---हमारे गाँवो में सिर्फ किताबी पढाई है, उनके पास "कौशल" की कमी है!
आज के दिन सरकारी हो या गैर-सरकारी अगर नौकरी चाहिए तो आपमें कौशल होना जरुरी है! चाहे वो बात करने का, या फिर समस्या को सुलझाने का, या कपडे पहनने का! हर एक चीज़ का ढंग और तरीका जरुरी है! और तभी वो किताबी पढाई काम आती है!
लेकिन सीखने और समझने के लिए देखने की जरुरत है!हमारे गाँवो में हमारे युवा किसको देखकर ढंग और तरीका सीखे? कौशल सीखे?
घर से ----? मगर परिवार में तो सभी बड़े अनपद है या सिर्फ अखबार पढना जानते हैं! और ऐसे कोई साधन नहीं है!

तो आई जड़ पकड़ में? जड़ है उनके असली विकास की! तो मेर मानना है की अगर हमारी सरकार १०० दिन के रोजगार की गारंटी के साथ अगर हमारे गाँवो के युवाओ को विभिन्न तरह के कौशल यानि skills की कक्षाए और प्रशिक्षण उपलब्द करवाए तो ज्यादा अच्छा है!

क्यों ना रोजगार दर को बढ़ने के लिए...सरकारी नौकरी की इच्छा रखने वाले शहरी और कौशल सम्पूर्ण युवाओ की ५-१० की मंडली बनायीं जाए..और उन्हें कुछ गाँवो का जिम्मा सौपा जाये..की वो गाँव के युवाओ को हर तरह के कौशल से अवगत करवाए और उन्हें सोचने-समझने, रहने-खाने, पहनने और जीने का ढंग सिखाये! फिर शहर और गाँव में फर्क नहीं रह जाएगा! ना ही किसी गाँव वाले को रोजगार देने के लिए सरकार को बार-बार सड़के तोड़ कर नयी बनवानी पड़ेगी!और ना हमारे गाँवो में बसे असली हुनर को "गंवार" का नाम दिया जाएगा!

मुझे तो ताज्जुब नहीं है की सरकार ऐसी कोई योजना क्यों नहीं लाती? फिर वो वोतेस के लिए लोगो को बहला-फुसला नहीं पायेगे!
किन्तु हमारे NGO's कहा है? समझ सेवा की बड़ी-बड़ी बाते करते हैं! कौनसी नयी क्रांति लाये है? ज्यादातर NGO's के ऑफिस आप सब को बड़े शहरो में ही मिलंगे! क्यों नहीं गाँवो में जाकर ऑफिस खोलते...और दिन-रात उनके साथ रहकर उनका जीवन स्तर सुधारते ?

सिर्फ योजना बनाना काफी नहीं है, असली चाह जरुरी है!

मेरा आग्रह है, सुशिल कुमार से की अगर वो MNREGA का जिम्मा लेते है और प्रचार करते हैं, तो उन्हें कम से कम इस "कौशल प्रबंधन" यानि skill management की बात जरुर रखनी चाहिए मंत्रालय के सामने....

----गुंजन झाझारिया 


गुरुवार, 3 नवंबर 2011

तीसरी आंख:प्रेम

आज के माहौल में प्रेम शब्द बहुत ही आम सा लगने लगा है, जैसे वाकई में ग्रीष्म ऋतू में आम की बाते होती हैं!कम से कम लोग इसलिए तो बाते करते हैं, क्युकी सबको आम पसंद हैं!  
 पर आजकल प्यार शब्द तो जैसे एक फुटबाल बन गया है! एक ने इधर लात मारी, ये कह कर कि " प्यार से हमें तो डर लगता है भाई" तो दुसरे ने ये कह कर लात मारी कि " प्यार-व्यार कुछ नहीं बकवास है, बस जो मिले अपना टाइम अछे से बीतना चाहिए"
और कभी कभर ही कोई ऐसा तीसरा व्यक्ति मिलता है, जो कहे "दोस्त, प्यार पागल बना देता है, और उसमे कुछ भी कर जाते हो.मेरा मतलब अंधे हो जाते है हम, जो सोच-समझ कम करे वो प्यार है|"
अब भला ये भी कोई हर समय बहस का विषय है?
मेरे हिसाब से तो आज कि भागदौड़ कि जिंदगी में, जहा भावनाओं का कोई स्थान ही नहीं रह गया, यह भी एक वजह है आदमी की चिंताए बढ़ने की !
प्रेम जैसे शब्द का न ही तो कोई मोल, तोल है ! न कोई परिभाषा है!
प्रेम तो मन कि अनुभूति है, जिसका वर्णन करना मतलब भगवान् को ही श्राप देने जैसा है!
प्रेम, न कोई जोर है, न कोई बंधन!
प्रेम से कोई आँख बंद नहीं होती, बल्कि एक तीसरी आंख, जो हमारे मन-मंदिर में छिपी भावनाए और इच्छाए हैं,
वो खुल जाती है! जिससे हमें हमारी अन्दर के भाव से हमें वाकीफ होने का मौका मिलता है!
दुनिया में हजारो लोगो से मिलते हैं, और उन दो आँखों से उन्हें जानने-समझने लगते हैं! किन्तु स्वयं का रूप तभी जान पाते हैं, जब हमारा सामना हमारे असल आइने यानि प्रेम से होता है!
और उस जान-पहचान में अपना स्वरुप इतना भा जाता है कि हम चाहकर भी उसे खोना नहीं चाहते, और शायद इसी वजह से ही तो हम अपनों से हर-समय मिलना और बात करना चाहते हैं!
आज कि युवा पीढ़ी तो इस भावना से अनभिज्ञ है! वो इसलिए प्यार कि खोज में भटकते है क्युकी खुद से अभी तक नहीं मिल पाए हैं...जब स्वयं को जान लेते हो, तो प्यार का रूप-रंग और स्वरुप सब दिखाई पड़ता है!

एक उदहारण लेते हैं----माँ जब गर्भ धारण करती है, उसी समय जबकि उसने अपनी संतान को नहीं देखा होता है, वह उससे प्रेम करने लगती है, और बढ़ते दिनों के साथ प्रेम भी बढ़ता जाता है!
ऐसा क्यों?
क्युकी जैसे ही माँ गर्भ धारण करती है, उसे अपने अन्दर छिपी बहुत सी खुबिया, ममत्व के भाव, और संभल कर रहने और सँभालने कि जिम्मेदारी का अहसास होता है, और अपना वो रूप उसे ऐसा भाता है कि उस रूप कि वजह पर वो प्रेम उमड़ आता है!जो उसका नन्हा भ्रूण है !

ऐसा ही हर एक रिश्ते में चाहे पति-पत्नी, भाई-बहन, प्रेमी-प्रेमिका हो, सब में होता है!
प्रेम का तात्पर्य ही है स्वयं से दोस्त बनना, स्वयं को सामने वाले कि आँखों के दर्पण में देख पाना, ये न ही डरने वाली और न ही छुपाने वाली बात है! और न ही इससे कोई सोचने -समझने कि शक्ति ख़तम हो जाती है!

प्रेम को छुपाना जैसे स्वयं के रूप को, स्वयं के अन्दर छुपी भावनाओ को, और स्वयं के ह्रदय में उमडी कल्पनाओ को नकारने जैसा है!
प्रेम निश्चल, बुद्धिमान, नेक और समझदार है, और अगर ये सभी तरह के रिश्तो की भावनाओ का सम्मान और समाज की मर्यादा को ध्यान में रख कर पूजा जाए तो ये भगवान् के सबसे नजदीक मानवीय ह्रदय का बोर्नविटा साबित होता है!
और हमारे वैज्ञानिक भी मानते है की ऐसे लोग जीवन में खुश भी रहते है और बीमारियों से भी दूर रहते हैं!
तो आइये , किसी भी ह्रदय को ठेस न पहुचने की जिम्मेदारी ले.
हर रिश्ते को प्रेम भाव से निभाएं! और प्रेम को समय का खिलौना न समझे!
मानवीय समुदाय को खुशहाल बनाये!
धन्यवाद!

गुंजन झाझारिया 


बुधवार, 2 नवंबर 2011

वैज्ञानिक और सैधांतिक


अजब सी कसमकश होती है 

हर बार जब जिंदगी नया मोड़ लेती है|
अपने ही फैसले पर डर सा लगता है,
किन्तु फिर वही बात जोखिम उठाने के लिए प्रेरित करती है! अगर मैं मान भी लूँ की ये सब वेद- पुराण मनुष्य ने ही अपने सहूलियत के लिए बनाये थे और तब जिदगी जीने का तरीका अलग था, और वो  नियम आज के हिसाब से सही नहीं है!
तो भी ये कैसे भूल जाऊ कि हर एक बार " जो होना होगा, वो होगा." इसी बात ने मुझे नया जोखीम लेने कि हिम्मत दी.या हर बार मेरे अन्दर जागे हुए शैतान को ठंडा किया ये कहकर कि "इस बात का बदला भगवान् स्वयं ले लेगे, वक़्त उसे उसकी सजा देगा,मैं क्यों अपना व्यक्तित्व गिराऊ?"
जबकि मैं जानती हूँ कि ना तो मैंने उस इश्वर को देखा है, ना ही कोई वैज्ञानिक तरीके से ये साबित है! फिर पूरी तरह से पढ़ लिख कर, पूरी तरह से मानवी शक्तियों से वाकीफ हो कर मैं ये कैसे विश्वास कर सकती हूँ, कि इश्वर जरुर उसकी गलतियों कि सजा उसे देगा!

लेकिन बात यहाँ आस्तिक या नास्तिक होने कि नहीं है!ना ही सही और गलत कि!
मुद्दा है कि कभी कभी बिना साबित हुई, और बिना वैज्ञानिक तरीके से सिद्ध हुई बाते भी हम कितने विश्वास के साथ मानते हैं! आखिर ऐसा क्यों?
जहा तक मेरा सोचना है, ये सब इसलिए हम आंख बंद करके मान लेते हैं, क्युकि इस सब संसाधनों और ढेर सारे प्रयोगों के बीच हमारे वैज्ञानिक हमारे निजी जिंदगी में आने वाली भावनात्मक समस्याओ का एवं मन कि शांति के लिए कोई रास्ता नहीं बता पाए..!
वो सब ये भूल ही गए कि उनके बनाये संसाधन आराम तो देंगे लेकिन सुकून होगा तभी उस आराम का आनंद आ पाएगा!
वह बात जो हमारे वैज्ञानिक नहीं खोज पाए, वो हमारे पूर्वजो ने खोजी! और आज तक हम उन बातो का वैसा वैसा रूप आंख मूँद कर मानते आ रहे हैं क्युकि इसके अलावा हमारे पास कोई और रास्ता नहीं है! हाँ ये तो जाहिर है कि उस रूप में बदलाव जरुरी है, इसी वजह से कुछ लोग इसे ढकोसला भी कहते हैं, क्युकि वो रूप अब पुराना है और बदलते समय के साथ ताल -मेल नहीं कर पा रहा|

पहले के लोगो का धन्यवाद जो कम से कम अपनी आने वाली पीढ़ी को क्या देना है, जो वो सुकून से जिए! ऐसा सोचते थे और बहुत सारी सीख देकर जाते थे, जिससे और कुछ नहीं तो संतोष, सद्भाव और भाईचारा तो बढ़ता था!
किन्तु आज-कल हमारी पीढ़ी तो हमारे वैज्ञानिको कि खोजी आरामदायक चीजों में इतनी व्यस्त है कि भूल गई है, उनके बच्चो को पैसे, माकन, गाड़ी के अलावा विरासत में और भी देना है, जिसके बिना वो सब चीज़े बेकार है! वो है---- जिंदगी जीने का तरीका!

हाँ तो मैं कह रही थी कि भगवन है या नहीं ये तो साबित नहीं हो पाया फिर भी आप, मैं और सभी लोग बिना किसी सवाल के उन्हें  पूजते और मानते हैं!क्यों?
तो मेरा जवाब है, अगर मेरी सारी परेशानिया उन्हें बताकर, मुझे शांति मिलती हो! उनके द्वार पर जाकर मुझे एक विशेष सी सकारात्मक उर्जा मिलती हो! और उनसे कुछ मांगते वक़्त एक आशा और उम्मीद जगती हो, जिससे मैं अपना काम और भी विश्वास के साथ कर पाती हूँ....तो क्यों ना मानु?
जब उनके होने मात्र के डर से लोग झूठ बोलने या चोरी करने से डरते हैं, तो क्यों ना मानु? हाँ मैं मानती हू कि डर कि बजे अगर समझ से चोरी ना करने फैसला लिया जाए तो और भी अच्छा है! किन्तु तरीका चाहे जो भी हो, बुराई का अंत तो हो ही रहा है ह ना!
कुछ दोस्त कहते हैं कि जब तुम अंडा-मांस खाते हो तो दिन के हिस्साब से क्यों?
मंगलवार को भगवान् होते है और सोमवार को नहीं ? ये क्या बात हुए ये बकवास है!
हाँ मैं उनकी बात से भी सहमत हूँ, किन्तु कभी दुसरे और नए नजरिये से भी सोचो , कि बात सिर्फ खाने या ना खाने कि नहीं है!
बात है अपने मन को अपने मुठी में लेने कि...अगर किसी एक प्रण से मेरा स्वं पर नियंत्रण बढ़ता है, तो अची बात है ना!
अब आप ये कहोगे कि फिर खाओ ही मत ! और नियंत्रण बढेगा,
किन्तु दोस्तों क्या आपको लगता है कि मैं कोई चीज हमेशा के लिए छोड़ दू, तो मेरा उसे खाने का मन वैसा ही रहेगा हमेशा?
धीरे-२ मुझे अदात हो जाएगी कि मुझे नहीं खाना...और आजकल संभव भी कम है हर एक चीज़ में मिलावट और किसी भी पार्टी में आपको 
पूरी तरीके से शाकाहारी भोजन मिले...तो वक़्त के साथ थोडा बदलना पड़ता है!
जो लोग पूर्णतह शाकाहारी हैं, उनको काफी समस्या का सामना करना पड़ता है, यह मैं शाकाहारी होने के विपक्ष में नहीं हूँ, सिर्फ अपनी राय दे रही हूँ!

इस लेख को लिखने का बस यही मकसद था, कि सारी पुराणी बाते दकियानूसी नहीं होती हैं!
बस उन्हें नए तरीके से सोचने और समझने कि जरुरत हैं!
वक़्त के हिसाब से कम- ज्यादा हो सकता है, लेकिन उन्हें नाकारा नहीं जा सकता!
और मेरा निवेदन है आज कि पीढ़ी से कि अपनी जिंदगी के हर अनुभव को आने वाली पीठी के साथ बाते और साथ में उन्हें हल भी समझाए!
जरुरी नहीं कि उन पर थोपे किन्तु मानव जाती के विकास के लिए हमारी कुछ जिम्मेदारी है, ये ना भूले!सच तो ये है कि आधुनिक मानव नयी और पुरानी, वैज्ञानिक और सैधांतिक बातो में फस कर रह गया है! जिससे निकलना बहुत जरुरी है! 

नोट: यह लेख मुझे आज के हर समय साधनों से घिरे किन्तु चिंतित मानव के वजूद ने लिखने को मजबूर किया!आप-सब से छोटी हूँ, किन्तु मुझे ठीक लगा तो बांटा आप सब के साथ !
धन्यवाद!

गुंजन झाझारिया