गुरुवार, 3 नवंबर 2011

तीसरी आंख:प्रेम

आज के माहौल में प्रेम शब्द बहुत ही आम सा लगने लगा है, जैसे वाकई में ग्रीष्म ऋतू में आम की बाते होती हैं!कम से कम लोग इसलिए तो बाते करते हैं, क्युकी सबको आम पसंद हैं!  
 पर आजकल प्यार शब्द तो जैसे एक फुटबाल बन गया है! एक ने इधर लात मारी, ये कह कर कि " प्यार से हमें तो डर लगता है भाई" तो दुसरे ने ये कह कर लात मारी कि " प्यार-व्यार कुछ नहीं बकवास है, बस जो मिले अपना टाइम अछे से बीतना चाहिए"
और कभी कभर ही कोई ऐसा तीसरा व्यक्ति मिलता है, जो कहे "दोस्त, प्यार पागल बना देता है, और उसमे कुछ भी कर जाते हो.मेरा मतलब अंधे हो जाते है हम, जो सोच-समझ कम करे वो प्यार है|"
अब भला ये भी कोई हर समय बहस का विषय है?
मेरे हिसाब से तो आज कि भागदौड़ कि जिंदगी में, जहा भावनाओं का कोई स्थान ही नहीं रह गया, यह भी एक वजह है आदमी की चिंताए बढ़ने की !
प्रेम जैसे शब्द का न ही तो कोई मोल, तोल है ! न कोई परिभाषा है!
प्रेम तो मन कि अनुभूति है, जिसका वर्णन करना मतलब भगवान् को ही श्राप देने जैसा है!
प्रेम, न कोई जोर है, न कोई बंधन!
प्रेम से कोई आँख बंद नहीं होती, बल्कि एक तीसरी आंख, जो हमारे मन-मंदिर में छिपी भावनाए और इच्छाए हैं,
वो खुल जाती है! जिससे हमें हमारी अन्दर के भाव से हमें वाकीफ होने का मौका मिलता है!
दुनिया में हजारो लोगो से मिलते हैं, और उन दो आँखों से उन्हें जानने-समझने लगते हैं! किन्तु स्वयं का रूप तभी जान पाते हैं, जब हमारा सामना हमारे असल आइने यानि प्रेम से होता है!
और उस जान-पहचान में अपना स्वरुप इतना भा जाता है कि हम चाहकर भी उसे खोना नहीं चाहते, और शायद इसी वजह से ही तो हम अपनों से हर-समय मिलना और बात करना चाहते हैं!
आज कि युवा पीढ़ी तो इस भावना से अनभिज्ञ है! वो इसलिए प्यार कि खोज में भटकते है क्युकी खुद से अभी तक नहीं मिल पाए हैं...जब स्वयं को जान लेते हो, तो प्यार का रूप-रंग और स्वरुप सब दिखाई पड़ता है!

एक उदहारण लेते हैं----माँ जब गर्भ धारण करती है, उसी समय जबकि उसने अपनी संतान को नहीं देखा होता है, वह उससे प्रेम करने लगती है, और बढ़ते दिनों के साथ प्रेम भी बढ़ता जाता है!
ऐसा क्यों?
क्युकी जैसे ही माँ गर्भ धारण करती है, उसे अपने अन्दर छिपी बहुत सी खुबिया, ममत्व के भाव, और संभल कर रहने और सँभालने कि जिम्मेदारी का अहसास होता है, और अपना वो रूप उसे ऐसा भाता है कि उस रूप कि वजह पर वो प्रेम उमड़ आता है!जो उसका नन्हा भ्रूण है !

ऐसा ही हर एक रिश्ते में चाहे पति-पत्नी, भाई-बहन, प्रेमी-प्रेमिका हो, सब में होता है!
प्रेम का तात्पर्य ही है स्वयं से दोस्त बनना, स्वयं को सामने वाले कि आँखों के दर्पण में देख पाना, ये न ही डरने वाली और न ही छुपाने वाली बात है! और न ही इससे कोई सोचने -समझने कि शक्ति ख़तम हो जाती है!

प्रेम को छुपाना जैसे स्वयं के रूप को, स्वयं के अन्दर छुपी भावनाओ को, और स्वयं के ह्रदय में उमडी कल्पनाओ को नकारने जैसा है!
प्रेम निश्चल, बुद्धिमान, नेक और समझदार है, और अगर ये सभी तरह के रिश्तो की भावनाओ का सम्मान और समाज की मर्यादा को ध्यान में रख कर पूजा जाए तो ये भगवान् के सबसे नजदीक मानवीय ह्रदय का बोर्नविटा साबित होता है!
और हमारे वैज्ञानिक भी मानते है की ऐसे लोग जीवन में खुश भी रहते है और बीमारियों से भी दूर रहते हैं!
तो आइये , किसी भी ह्रदय को ठेस न पहुचने की जिम्मेदारी ले.
हर रिश्ते को प्रेम भाव से निभाएं! और प्रेम को समय का खिलौना न समझे!
मानवीय समुदाय को खुशहाल बनाये!
धन्यवाद!

गुंजन झाझारिया 


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