रविवार, 23 सितंबर 2012

बर्फी का रस..

इस भागदौड और मशीनी जिंदगी में "अर्थ" और "दिखावे" से घिरा इंसान भूल गया उस ठन्डे अहसास को, जिसे हम प्रेम, लगाव कहते हैं...जो अंदर तक भिगो कर, मन-मस्तिष्क को शुद्ध कर, आँखों से टपकता है! जिसके होने भर से "मैं इंसान हूँ", "मैं महसूस कर सकता हूँ", "मैं जिन्दा हूँ" का अहसास होता है!
जिदगी की कड़ी धूप में ३ घंटे के भीतर "इंसान क्या है ? " का जवाब चहिये...? अगर सारी चिंताओं को भुलाकर बस ३ घंटे अगर मूक और तृप्त प्रेम को महसूस करना है! तो जाइए और जेब से 200 रुपये का कागज का टुकड़ा निकालकर "बर्फी" से मिलकर आइये...!

"बर्फी " कहानी है मर्फी की..नाम तो था मर्फी (मूक, बधिर)...पर इतना रसीला कि लोग कहने लगे "बर्फी"!
बचपन में पैदा होते ही माँ गुजर गयी! पिता का लाडला...छोटे से घर का ये बर्फी छोटे-मोटे काम कर खुशियाँ बांटता था...! काम सिर्फ पेट की भूख मिटाने भर के लिए..! फिर आई एक लड़की (पैसे वाली नारी) बर्फी की जिंदगी में...आधुनिक और कीमती प्रेम से अनभिज्ञ बर्फी बेइंतहा चाहने लगा था उसे!!! और वो बर्फी की मासूमियत और मिठास से बच नहीं पाई...दिल दे बैठी उसे...लेकिन पैसे वाली नारी की पैसे वाली माँ को अपने "स्टेटस" के आगे बर्फी की सच्चाई छोटी लगी, और उसने अपनी बेटी को "पैसे" वाले इंसान से ब्याह रचाने को राज़ी कर लिया..बर्फी जैसे ऊपर तक प्रेम के सागर में डूबे इंसान को इतना झटका लगा लेकिन फिर भी उसे दुआए दी और उसकी जिंदगी से मुस्कुराता हुआ चला गया....! बर्फी के पिता का देहांत हुआ ..! बर्फी उदास तो हुआ लेकिन एक लड़की "झिलमिल" उसकी मुस्कराहट बनी..."झिलमिल" थी तो युवा लेकिन बुधि बच्चे जितनी विकसित हुई थी...मासूम, झिलमिलाती, टिमटिमाती "झिलमिल" को बर्फी उठाकर लाया था, जब उसके पिता के इलाज के लिए पैसे की जरुरत थी, और झिलमिल के नाना झिलमिल के नाम काफी संपत्ति छो गए थे! लेकिन बर्फी को झिलमिल के खाने से लेकर, उसके सोने तक हर काम संभालना पड़ता था! शुरुवात में बोझ लगी थी उसे झिलमिल, लेकिन किसी भी राह में उसे अकेला नहीं छोड़ा उस "इंसानी देवी" ने उसे...
और इतना साथ दिया कि बर्फी उसके बिना जीना ही भूल गया!! बुढ़ापे में अंतिम साँस भी दोनों ने "आई.सी.यू. " के एक ही सिंगल बेड पर ली...
इस बीच कई तूफ़ान आये दोनों की जिंदगी में...लेकिन वो पाक, मासूम प्रेम को छू तक ना पाए!....
हर बार एक मुस्कराहट छोड़ता बर्फी, उसकी मुस्कराहट की वजह बनती झिलमिल..

ये थी आधी अधूरी कहानी ! " आधी-अधूरी " इसलिए क्युकी मैं उस अहसास को महसूस तो कर पाई...लेकिन पूरी तरह कागज पर नहीं उतार पाई...
झिलमिल का उल्टा बी सिखाना बर्फी को..और बर्फी का आँख मूंदकर झिलमिल के उलटे बी को बर्फी का सीधा बी समझ लेना, (जबकि वह जनता था कि झिलमिल कोई भी काम बिना गलती किये नहीं कर पाती)
जब बर्फी खाना खता तो उसके पास बैठना, उसे खाते देखना! आटे के गुड्डे बनाकर तवे पर सेकना, और फिर बर्फी की थाली में खाने को रख देना..

एक निश्चल प्रेम की अदभुत कहानी थी "बर्फी"..उस ३ घंटे में इंसान होने का अहसास हुआ..और ऐसा स्वप्निल अहसास था कि अभी तक रात को अपने आस-पास जुगनू दिखाई देते हैं!
अभी तक उस ग्लोब से दुनिया उलटी दिखाई देती है!

जाइये और कागज के टुकडो में से कुछ खर्च कर जिंदगी को महसूस कर के आइये...
महसूस करिये कि इस मशीनी दुनिया में क्या है सबसे कीमती , जिसे आप भूल गए हैं! ऐसा क्या है, जो आपके लिए सांसो जितना जरुरी है!
वो है "जिन्दा होने का अहसास".....



ओ..ए....ओ......ख्वाबो ही ख्वाबो में करे बातें......


शुक्रवार, 14 सितंबर 2012

किस्सा मेरा और मेरी भाषा के अपमान का..

सन्देश :
हिंदी दिवस के दिन मेरी हिंदी भाषा को शत शत नमन...
सभी हिंदी से जुड़े साथीयों, अग्रजों, अनुजों को बधाई...
सभी भाषाएँ पूजनीय होती हैं..किन्तु हमारे लिए हिंदी का स्थान उच्च ही रहेगा..
जिस भाषा में सारी संस्कृति, साहित्य, और खुद के होने का वजूद बसा हो, वो भाषा तो माँ से भी बढ़कर है...हिंदी के स्वाभिमान को चोट ना पहुँचाए..बाकी जिनती भाषाये सीखना, बोलना चाहें, जरुर बोलें...किन्तु हिंदी को, हिंदी बोलने वाले को लज्जित ना करे..


किस्सा:
मैंने स्नातकोत्तर की डिग्री प्रबंधन में प्राप्त की है...वह क्षेत्र जिसे अंग्रेजी ने इतनी बुरी तरह से जकडा है कि हिंदी बोलना महापाप है...कुछ महानुभाव ही समझ पाते हैं कि वाक् कला का मतलब सिर्फ अंग्रेजी बोलना और लिखना नहीं है...!
अब हुआ यूँ कि हमारे नए "dean" महाश्य आये..आते ही उन्होंने हमें "placements" के लिए प्रशिक्षित करने का जिम्मा खुद ले लिया..अपने केबिन में बुलाकर सारा सारा दिन वो हमसे सवाल किया करते, और जवाब तैयार करवाया करते..मुझे "finance club" की प्रतिनिधि बनाया गया...
मेरा भी बड़ा मन करता था कि मैं सभी की मदद करूँ, और हम सब से जुड़े फैसलों में मेरे भी विचार सुने जाए..इसी वजह से मैं हर रोज कुछ नया सोच कर लाती और जितना मेरी समझ में आता उससे बेहतर करने का सोचती...
एक दिन मैं सर से बात कर रही थी...तभी सर मेरी काबिलियत पर बात करने लगे...उन्हें पता था कि मैं लिखती हूँ, और कुछ-एक रचनाएँ भी पढ़ी थी..एकाएक वो मुझसे बोले..
"मैं जानता हूँ कि ये तुम्हारी कला है.पर तुम ये साक्षात्कार में मत बोलना कि मैं ये सब लिखती हूँ ,गलत प्रभाव पडेगा, एक तो तुम हिंदी में लिखती हो, दूसरा ये सब से ये प्रदर्शित होता है कि तुम ज्यादा sensitive हो..."
( ये सब उन्होंने अपनी भाषा अंग्रेजी में कहा था...)
मैं आश्चर्यचकित उन्हें देखती रही..फिर जवाब दिया...
"सर! मैं sensitive हूँ, इससे ये कहाँ दिखता है कि मैं अपना काम ठीक से नहीं करूंगी या विपरीत परिस्थितियों का सामना नहीं कर पाऊँगी...इंसान का गुण है, और इतना तो पक्का है कि मशीनी मानव से अच्छा कर लूंगी..और जिसे मशीन कि जरुरत हो, वहाँ काम करना मुझे भी पसंद नहीं..
दूसरी बात हिंदी में लिखने, बोलने वाले कई लोग है जो अच्छी कंपनी में, अच्छी पोस्ट पर काम कर रहे हैं..कुछेक के नाम भी गिना दिए.और ज्यादातर विज्ञापन मैंने हिंदी में देखे हैं..कोका-कोला, एयरटेल ही क्यों ना हो..मुझे नहीं लगता कि मुझे ना चुने जाने कि यह एक वजह हो सकती है.."
कुछ हद तक वो मेरी बात से सहमत भी हुए...लेकिन दुःख मुझे ये है कि इससे पहले वो बड़ी कंपनीज में काम कर चुके हैं, बहुत से साक्षात्कार ले चुके हैं...ना जाने कितने काबिल लोगो को उन्होंने हिंदी बोलने या लिखने की वजह से नौकरी से वंचित किया हो..और कर भी रहे हों...

गुंजन झाझारिया "गुंज"