शुक्रवार, 14 सितंबर 2012

किस्सा मेरा और मेरी भाषा के अपमान का..

सन्देश :
हिंदी दिवस के दिन मेरी हिंदी भाषा को शत शत नमन...
सभी हिंदी से जुड़े साथीयों, अग्रजों, अनुजों को बधाई...
सभी भाषाएँ पूजनीय होती हैं..किन्तु हमारे लिए हिंदी का स्थान उच्च ही रहेगा..
जिस भाषा में सारी संस्कृति, साहित्य, और खुद के होने का वजूद बसा हो, वो भाषा तो माँ से भी बढ़कर है...हिंदी के स्वाभिमान को चोट ना पहुँचाए..बाकी जिनती भाषाये सीखना, बोलना चाहें, जरुर बोलें...किन्तु हिंदी को, हिंदी बोलने वाले को लज्जित ना करे..


किस्सा:
मैंने स्नातकोत्तर की डिग्री प्रबंधन में प्राप्त की है...वह क्षेत्र जिसे अंग्रेजी ने इतनी बुरी तरह से जकडा है कि हिंदी बोलना महापाप है...कुछ महानुभाव ही समझ पाते हैं कि वाक् कला का मतलब सिर्फ अंग्रेजी बोलना और लिखना नहीं है...!
अब हुआ यूँ कि हमारे नए "dean" महाश्य आये..आते ही उन्होंने हमें "placements" के लिए प्रशिक्षित करने का जिम्मा खुद ले लिया..अपने केबिन में बुलाकर सारा सारा दिन वो हमसे सवाल किया करते, और जवाब तैयार करवाया करते..मुझे "finance club" की प्रतिनिधि बनाया गया...
मेरा भी बड़ा मन करता था कि मैं सभी की मदद करूँ, और हम सब से जुड़े फैसलों में मेरे भी विचार सुने जाए..इसी वजह से मैं हर रोज कुछ नया सोच कर लाती और जितना मेरी समझ में आता उससे बेहतर करने का सोचती...
एक दिन मैं सर से बात कर रही थी...तभी सर मेरी काबिलियत पर बात करने लगे...उन्हें पता था कि मैं लिखती हूँ, और कुछ-एक रचनाएँ भी पढ़ी थी..एकाएक वो मुझसे बोले..
"मैं जानता हूँ कि ये तुम्हारी कला है.पर तुम ये साक्षात्कार में मत बोलना कि मैं ये सब लिखती हूँ ,गलत प्रभाव पडेगा, एक तो तुम हिंदी में लिखती हो, दूसरा ये सब से ये प्रदर्शित होता है कि तुम ज्यादा sensitive हो..."
( ये सब उन्होंने अपनी भाषा अंग्रेजी में कहा था...)
मैं आश्चर्यचकित उन्हें देखती रही..फिर जवाब दिया...
"सर! मैं sensitive हूँ, इससे ये कहाँ दिखता है कि मैं अपना काम ठीक से नहीं करूंगी या विपरीत परिस्थितियों का सामना नहीं कर पाऊँगी...इंसान का गुण है, और इतना तो पक्का है कि मशीनी मानव से अच्छा कर लूंगी..और जिसे मशीन कि जरुरत हो, वहाँ काम करना मुझे भी पसंद नहीं..
दूसरी बात हिंदी में लिखने, बोलने वाले कई लोग है जो अच्छी कंपनी में, अच्छी पोस्ट पर काम कर रहे हैं..कुछेक के नाम भी गिना दिए.और ज्यादातर विज्ञापन मैंने हिंदी में देखे हैं..कोका-कोला, एयरटेल ही क्यों ना हो..मुझे नहीं लगता कि मुझे ना चुने जाने कि यह एक वजह हो सकती है.."
कुछ हद तक वो मेरी बात से सहमत भी हुए...लेकिन दुःख मुझे ये है कि इससे पहले वो बड़ी कंपनीज में काम कर चुके हैं, बहुत से साक्षात्कार ले चुके हैं...ना जाने कितने काबिल लोगो को उन्होंने हिंदी बोलने या लिखने की वजह से नौकरी से वंचित किया हो..और कर भी रहे हों...

गुंजन झाझारिया "गुंज" 

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