शुक्रवार, 18 नवंबर 2011

शांति एवं प्रेम की तराजू

कभी कभी सही या गलत  की आंधी में इंसान इतना फस जाता है, कि सही और गलत का चुनाव तो दूर कि बात है, वह भीतर से भी घटने लगता है..इस द्वंद्व में उसके अन्दर कि बुद्धिमता का कोई हिस्सा जैसे झड़ने सा लगता है..
क्या यही इस प्रकृति का एक खेल है, इश्वर के सबसे लाडले एवं बुद्धिमान  मनुष्य को अपने जाल में उलझाए रखने का?
क्युकी अगर सत्य और असत्य का असली अर्थ समझ आ गया और सही और गलत में फर्क करना जान गया तो फिर तो मनुष्य गलतियाँ ही नहीं करेगा..और जब गलतिया नहीं होंगी तो फिर सब आपस में प्रेम से और सद्भावना से ही रहेगे.! फिर ये दुख-सुख का चक्र भी झुठला जाएगा!
और शायद इसी वजह से कई महापुरुषों ने सत्य कि खोज में अपना जीवन दे दिया...किन्तु एक ही बात सबने बताई कि शारीर नाशवान है और आत्मा अमर..इसलिए शारीर पर ध्यान न दो!

अब ये बात भी मुझे तो कुछ हजम नहीं हुई ...अगर शारीर पर ध्यान ही न देना था तो फिर आपके परमात्मा ने इतनी मेहनत से यह बनाया क्यों? और आप ही कहते हो कि ऊपर वाला जो करता है, सोच समझ कर करता है,
तो फिर यह क्यों उनकी बने किसी भी चीज़ पर हम ध्यान न दे?

जब महापुरुषों कि इस बात कि उदेद्बुन कि तो यही कुछ समझ आया, कि किसी कि बात को सुनना, समझना चाहिए किन्तु आँख बंद कर के भरोसा नहीं करना चाहिए! अगर मेरे विचार और मेरा ज्ञान मुझे यह कहना चाहते है कि यह शारीर नाशवान तो है, कित्नु जब तक इसका नाश न हो तब तक इसका सही इस्तेमाल करना हमारा फर्ज है, तो मैं वही सुनुगी और करुगी!

अपने आप को सजाने, सवारने में कैसी बुराई? क्यों इश्वर के समीप जाने के लिए भगवा वस्त्र ही पहनो, जबकि भगवान् तो खुद वैभव के स्वामी हैं और सज-संवर कर रहना पसंद करते हैं?
मुझे तो कभी भी समझ नहीं आया, इसके पीछे का तथ्य!


इस संसार में आये हो, और इतना बल और बुधि से परिपूर्ण जो शारीर मिला है, उसका पूरा इस्तेमाल जरना चाहिए! अपने विचारो का मंथन करके जानो कि आपको क्या सही लगता है और क्या गलत ? उसके पीछे के तथ्य को समझो और फिर अपने फैसले लो!


हालाँकि रोजमर्रा कि जिंदगी में कई बार हम सही-गलत, अपने-पराये के बीच इतना फस जाते हैं, कि लगता है कुछ अब हमारे हाथ में नहीं है, ऊपर वाला ही खेल खेल रहा है!
उस समय वही बात बार-२ सोचकर अपने आपको खोने से अच्छा है कि आप यह सोचो मेरे आस-पास इतने मस्तिष्क हैं और सब के विचार और कार्य एकजुट हो तो फल आएगा..न कि मेरे अकेले के सोचने से!
और यह जरुरी नहीं कि बाकी सब के मस्तिष्क बिलकुल वही विचारे!
उस समय जब आपको लगे कि आपके विचार सबसे अलग हैं किन्तु सही हैं, फिर भी आपके हिसाब से काम नहीं हो रहा है!

तो आपको सब कुछ समय पर छोड़ देना चाहिए! इस समय में  आप अपने आपको अनुकूल और प्रतिकूल जो भी हो आने वाली परिस्थिति के लिए तैयार करे किन्तु चिंता और घबराहट से परे होकर!
इसका तर्क यह नहीं है कि  समय में कोई बल है...या प्रभु कोई चमत्कार करेंगे..
बल्कि तर्क ये है कि बाकी बुद्धिजीवी क्या करेंगे और क्या चाहते हैं, आपको समझ आ जाएगा!
और ऐसा ही बिलकुल उनके साथ होगा..और फिर आप और वही सब मिलकर अपने विचारो में थोडा बहुत फेर बदल करेगे और सब स्वतः ही संभल जाएगा!

सही और गलत के बिच कोई दिवार नहीं है....कोई नहीं जानता कि बिलकुल सही या बिलकुल गलत क्या है?
बस जो भी तथ्य हो उससे आपके मन एवं मस्तिस्क को संतुष्टि का अहसास हो....और आपके इर्द-गिर्द सौहार्द एवं शांति का वातावरण बने ....वही सत्य है !
इसलिए अपने कार्यो को सही गलत कि परिभाषा में तौलना छोड़कर हमें उसे शांति और अशांति, या प्रेम सद्भावना के शब्दों में तौलना चाहिए!
इसी में हम सब कि भलाई भी है और उन्नति भी!
इसलिए आज से और अभी से ये वहम छोड़ दे कि मैं सही हू तो मैं क्यों मानु बात?
या फिर मैं सही हू तो मैं क्यों झुकू ?

याद रखे...
इक दिन बिक जाएगा माटी के बोल,
जग में रह जायेगे प्यारे तेरे बोल!!

माती के बोल बिकने का तो कुछ पता नहीं किन्तु हाँ आपके बोल अवश्य रह जाएगे...अगर आपके बात मानने से शांति और सौहार्द बना रहे तो क्या सही है वो इतना जरुरी नहीं!

आपके विचार आमंत्रित हैं...
अगर आप मेरे विचारो से सहमत नहीं तो भी आपका पक्ष जरुर रखे!

सधन्यवाद!



गुंजन झाझारिया...


6 टिप्‍पणियां:

  1. सुंदर आलेख .... मन मे उठते सुंदर विचार व सोच
    एक दिन बिक जायेगा माटी के मोल
    जग मे रह जाएँगे प्यारे तेरे बोल ........ इसका तात्पर्य है की एक दिन हम इस माटी मे मिल जाएँगे और केवल फिर बोल ही लोग याद रखेंगे

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  2. धन्यवाद प्रतिबिम्ब सर ...
    सही अर्थ बताया ....
    आपके अनुभव की हमेशा आवश्यकता है!

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  3. आपने जो कहा शायद बिलकुल सही है मगर लाख ऐसा सोचने पर भी मनुष्य सही गलत धर्म -अधर्म ,पाप पुण्य के मोह से निकाल ही नहीं पाता और निकालना चाहे भी तो यह समाज उसे नहीं निकालने देता।क्यूंकि मनुष्य है तो सामाजिक प्राणी ही इसलिए खुद कि बातों और विचारों से ज्यादा असर उस पर सामाजिक बातों का होता है। इसलिए बहुत कम ही लोग हैं जो इस मानोदशा से निकाल अपने जीवन में कुछ अलग कर पाते हैं। खैर यह मेरे विचार हैं, हो सकता है आप इन से सहमत ना भी हों, मगर फिर भी मुझे आपके द्वारा लिखे गए इस आलेख में एक बात बेहद अच्छी लगी वो थी "सही और गलत के बिच कोई दिवार नहीं है....कोई नहीं जानता कि बिलकुल सही या बिलकुल गलत क्या है"?आपके ब्लॉग पर आकार अच्छा लगा समय मिले कभी तो आप भी आयेगा मेरे ब्लॉग पर आपका सवागत है

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  4. बिल्कुल पल्लवी जी आपके और मेरे विचारो में कोई अंतर नहीं...
    मैंने भी यही कहा की परम और सौहार्द बनाये रखना ही मनुष्य का परम धर्म है...क्युकी वह एक सामाजिक प्राणी है..
    इसलिए समझ में होने वाली घटनाओं से परेशान होना या फिर अपने आप को सच साबित करने की दौड़ में दुसरो को दुःख पहचाना ठीक नहीं है..
    मैं ये नहीं कह रही की पाप-पुन्य को सोचना छोड़ दे, या धर्म- अधरम का ध्यान ना करे...किन्तु मैं सही हू और तू गलत, तो मैं क्यों तेरी बात मानु? या मैं सही हू तो क्या फर्क पड़ता है सामने वाले की मेरी बात का बुरा लगा या नहीं?
    यह सोचना गलत है....अगर हम उसी बात को शांति और अशांति में तौले , जैसे शांति किस बात से है, कौनसी बात से सब को अच्छा लगेगा, और किस बात में सबकी भलाई है? तो हमारे मनुष्य समाज के लिए बेहतर होगा!
    अहम् को हटाना सबसे बड़ी उपलब्धि है!

    आपकी प्रसंशा के लिए सहृदय धन्यवाद!!
    अच्छा लगेगा आपकी रचना पढ़कर..जरुर आउगी आपके ब्लॉग पर


    गुंजन झाझारिया

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  5. सुंदर चिंतन लिए आलेख ....यह वैचारिक प्रक्रिया हमारा जीवन आसान ही करेगी... और कुछ गलतियों से भी बचाएगी......

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